Saturday 18 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฆंเคคिเคฒ เคธाเคนूเค•ाเคฐ

                    पंचतंत्र

              दंतिल साहूकार

वर्धमान नगर में आभूषणों का व्यापारी दंतिल अपने उत्तम व्यावहार से राजपुरुषों और सामान्य प्रजाजनों में अत्यंत प्रिय था। इस सेठ ने अपनी कन्या के विवाह के अवसर पर राजपरिवार की रानियों और परिजनों को निमंत्रित किया।

राज परिवार के सदस्यों के साथ गोरम्भ नमक सफाई-कर्मचारी भी सेठ के घर जा पहुंचा।  वह अपनी स्थिति को भूलकर अथवा अपने को आमंत्रित अतिथि समझकर शिष्ट वर्ग की पंक्ति में बैठ गया।  सेठ ने यह देखा तो क्रुद्ध होकर उसने गोरम्भ का गला पकड़कर उसे वहां से उठा दिया।

सेठ द्वारा सार्वजानिक रूप से किये गये इस अपमान से गोरम्भ बहुत दुखी हुआ।  वह लहू का घूँट पीकर घर लौट आया और सेठ से प्रतिशोध लेने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।  उसके ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला इतनी अधिक प्रचंड थी कि उसकी रातें करवटें बदलते ही बीतती थीं।  वह सुख की नींद नहीं सो पाता था।

एक दिन महल में झाड़ू लगाते हुए गोरम्भ ने राजा को अर्ध-निद्रित अवस्था में देखा तो उसे सुनाने की इच्छा से बडबडाते हुए वह बोला – यह भी दंतिल सेठ का कितना बड़ा सौभाग्य और साहस है कि वह रानी का आलिंगन-चुम्बन करने लगा है।

राजा ने हड़बड़ाकर शय्या से उठते हुए गोरम्भ को पुकारा और उसे डांटते हुए पूछा – यह तुम क्या अंट-शंट बक रहे हो?  गोरम्भ ने अभिनय करते हुए राजा की उत्सुकता को जगाने की इच्छा से कहा – महाराज! मैंने तो कुछ नहीं कहा, आपको भ्रम लगा है।

राजा ने सोचा कि गोरम्भ का रनिवास में बेरोकटोक प्रवेश है और दंतिल सेठ को भी हमने प्रवेश की अनुमति दे रखी है।  संभव है कि इसने दंतिल को रानी का आलिंगन करते हुए देखा है और अब भय के कारण सत्य को छिपा रहा है।  वस्तुतः जीवन का सत्य ही स्वप्न अथवा प्रलाप बनकर बाहर आता है।

राजा ने सोचा,  संभव है कि रानी भी दंतिल सेठ में अनुरक्त हो।  यह सोचकर राजा एक ओर तो रानी से खिंचा रहने लगा और दूसरी ओर उसने महल में दंतिल सेठ के प्रवेश पर रोक लगा दी।

राजा के बदले तेवर देखकर दंतिल चिंतित हो उठा और सोचने लगा कि मुझसे जाने-अनजाने क्या अपराध हो गया है जिससे कि राजा मुझसे सहसा रूष्ट हो गया है।  इसी सोच-विचार में उसे गोरम्भ के प्रति किये अपने व्यव्हार का स्मरण हो आया।  उसने सोचा कि आखिर वह राजपुरुष था, मुझे उसका अपमान नहीं करना चाहिये था।  लगता है यह आग उसी की लगाई हुई है।

दंतिल ने रात पड़ते ही गोरम्भ को अपने घर पर बुलाकर अपने अपराध के लिये न केवल खेद प्रकट किया अपितु धोती, दुपट्टे आदि की भेंट से उसे सम्मानित भी किया।  गोरम्भ ने प्रसन्न होकर दंतिल को पुनः पूर्ववत राजा का कृपापात्र बनाने का आश्वाशन दिया।

दूसरे दिन गोरम्भ ने महल में झाड़ू लगाते हुए राजा को अर्ध निद्रित अवस्था में देखा तो वह बडबडाते हुए बोला – हमारे महाराज को मलत्याग करते समय ककड़ी खाने की कैसी बुरी आदत है?  राजा ने सहसा जाग कर गोरम्भ को फटकारते हुए कहा – दुष्ट! यह कैसी बकवास कर रहे हो?  तुम्हें सेवक समझकर मैं दण्डित नहीं कर रहा, परन्तु क्या तुमने कभी हमें मलत्याग करते समय कुछ खाते हुए देखा है?  गोरम्भ भयभीत होने का अभिनय करते हुआ बड़े ही भोलेपन से बोला – महाराज!  क्या मैंने कुछ कहा है जिससे की आप प्रातः बेला में मुझसे रुष्ट होकर कुछ पूछ रहे हैं?

राजा ने गोरम्भ की निर्भीक वाणी सुनकर सोचा की लगता है इसकी अंट-शंट बकने की आदत है।  मैंने तो जीवन में मलत्याग करते समय कभी ककड़ी नहीं खायी।  लगता है कि रानी से दंतिल सेठ के आलिंगन की इसकी बडबडाहट भी सर्वथा निराधार है।  मैंने उस निरपराध को अपनी कृपा से वंचित करके उसके प्रति अन्याय ही किया है।  वस्तुतः उस जैसा परीक्षित साधु पुरुष राज-परिवार की स्त्रियों पर कुदृष्टि डाल ही नहीं सकता।  यह सोचकर राजा ने दंतिल को बुला कर उसे सम्मानित किया और रनिवास में उसके प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को हटा लेने की सूचना देकर उसे हर्षित बनाया।

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