Thursday 30 March 2017

เคฒोเค• เค•เคฅा : เคจिเคจ्เคฏाเคจเคตे เค•ा เคšเค•्เค•เคฐ

                 भरतीय लोक कथा

                निन्यानवे का चक्कर

प्राचीनकाल की बात है | असम के ग्रामीण इलाके में तीरथ नाम का कुम्हार रहता था | वह जितना कमाता था, उससे उसका घर खर्च आसानी से चल जाता था | उसे अधिक धन की चाह नहीं थी | वह सोचता था कि उसे अधिक कमा कर क्या करना है | दोनों वक्त वह पेट भर खाता था, उसी से संतुष्ट था |

वह दिन भर में ढेरों में बर्तन बनाता, जिन पर उसकी लागत सात-आठ रुपये आती थी | अगले दिन वह उन बर्तनों को बाजार में बेच आता था | जिस पर उसे डेढ़ या दो रुपये बचते थे | इतनी कमाई से ही उसकी रोटी का गुजारा हो जाता था, इस कारण वह मस्त रहता था | 

रोज शाम को तीरथ अपनी बांसुरी लेकर बैठ जाता और घंटों से बजाता रहता | इसी तरह दिन बीतते जा रहे थे | धीरे-धीरे एक दिन आया कि उसका विवाह भी हो गया | उसकी पत्नी का नाम कल्याणी था |

कल्याणी एक अत्यंत सुघड़ और सुशील लड़की थी | वह पति के साथ पति के काम में खूब हाथ बंटाने लगी | वह घर का काम भी खूब मन लगाकर करती थी | अब तीरथ की कमाई पहले से बढ़ गई | इस कारण दो लोगों का खर्च आसानी से चल जाता था |

तीरथ और कल्याणी के पड़ोसी यह देखकर जलते थे कि वे दोनों इतने खुश रहते थे | दोनों दिन भर मिलकर काम करते थे | तीरथ पहले की तरह शाम को बांसुरी बजाता रहता था | कल्याणी घर के भीतर बैठी कुछ गाती गुनगुनाती रहती थी |

एक दिन कल्याणी तीरथ से बोली कि तुम जितना भी कमाते हो वह रोज खर्च हो जाता है | हमें अपनी कमाई से कुछ न कुछ बचाना अवश्य है |

इस पर तीरथ बोला - "हमें ज्यादा कमा कर क्या करना है ? ईश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है, मैं इसी से संतुष्ट हूं | चाहे छोटी ही सही, हमारा अपना घर है | दोनों वक्त हम पेट भर कर खाते हैं, और हमें क्या चाहिए ?"

इस पर कल्याणी बोली - "मैं जानती हूं कि ईश्वर का दिया हमारे पास सब कुछ है और मैं इसमें खूब खुश भी हूं | परन्तु आड़े वक्त के लिए भी हमें कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहिए |"

तीरथ को कल्याणी की बात ठीक लगी और दोनों पहले से अधिक मेहनत करने लगे | कल्याणी सुबह 4 बजे उठकर काम में लग जाती | तीरथ भी रात देर तक काम करता रहता | लेकिन फिर भी दोनों अधिक बचत न कर पाते | अत: दोनों ने फैसला किया कि इस तरह अपना सुख-चैन खोना उचित नहीं है और वे पहले की तरह मस्त रहने लगे |

एक दिन तीरथ बर्तन बेचकर बाजार से घर लौट रहा था | शाम ढल चुकी थी | वह थके पैरों खेतों से गुजर रहा था कि अचानक उसकी निगाह एक लाल मखमली थैली पर गई | उसने उसे उठाकर देखा तो उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा | थैली में चांदी के सिक्के भरे थे |

तीरथ ने सोचा कि यह थैली जरूर किसी की गिर गई है, जिसकी थैली हो उसी को दे देनी चाहिए | उसने चारों तरफ निगाह दौड़ाई | दूर-दूर तक कोई दिखाई नहीं दिया | उसने ईश्वर का दिया इनाम समझकर उस थैली को उठा लिया और घर ले आया |

घर आकर तीरथ ने सारा किस्सा कल्याणी को कह सुनाया | कल्याणी ने ईश्वर को धन्यवाद दिया |

तीरथ बोला - "तुम कहती थीं कि हमें आड़े समय के लिए कुछ बचाकर रखना चाहिए | सो ईश्वर ने ऐसे आड़े समय के लिए हमें उपहार दिया है |"

"ऐसा ही लगता है |" कल्याणी बोली - "हमें गिनकर देखना चाहिए कि ये चांदी के रुपये कितने हैं |"

दोनों बैठकर रुपये गिनने लगे | पूरे निन्यानवे रुपये थे | दोनों खुश होकर विचार-विमर्श करने लगे | कल्याणी बोली - "इन्हें हमें आड़े समय के लिए उठा कर रख दिन चाहिए, फिर कल को हमारा परिवार बढ़ेगा तो खर्चे भी बढ़ेंगे |"

तीरथ बोला - "पर निन्यानवे की गिनती गलत है, हमें सौ पूरा करना होगा, फिर हम इन्हें बचा कर रखेंगे |"

कल्याणी ने हां में हां मिलाई | दोनों जानते थे कि चांदी के निन्यानवे रुपये को सौ रुपये करना बहुत कठिन काम है, परंतु फिर भी दोनों ने दृढ़ निश्चय किया कि इसे पूरा करके ही रहेंगे | अब तीरथ और कल्याणी ने दुगुनी-चौगुनी मेहनत से काम करना शुरू कर दिया | तीरथ भी बर्तन बेचने सुबह ही निकल जाता, फिर देर रात तक घर लौटता |

इस तरह दोनों लोग थक कर चूर हो जाते थे | अब तीरथ थका होने के कारण बांसुरी नहीं बजाता था, न ही कल्याणी खुशी के गीत गाती गुनगुनाती थी | उसे गुनगुनाने की फुरसत ही नहीं थी| न ही वह अड़ोस-पड़ोस या मोहल्ले में कहीं जा पाती थी |

दिन-रात एक करके दोनों लोग एक-एक पैसा जोड़ रहे थे | इसके लिए उन्होंने दो वक्त के स्थान पर एक भक्त भोजन करना शुरू कर दिया, लेकिन चांदी के सौ रुपये पूरे नहीं हो रहे थे |

यूं ही तीन महीने बीत गए | तीरथ के पड़ोसी खुसर-फुसर करने लगे कि इनके यहां जरूर कोई परेशानी है, जिसकी वजह से ये दिन-रात काम करते हैं और थके-थके रहते हैं |

किसी तरह छ: महीने बीतने पर उन्होंने सौ रुपये पूरे कर लिए | अब तक तीरथ और कल्याणी को पैसे जोड़ने का लालच पड़ चुका था | दोनों सोचने लगे कि एक सौ से क्या भला होगा | हमें सौ और जोड़ने चाहिए | अगर सौ रुपये और जुड़ गए तो हम कोई व्यापार शुरू कर देंगे और फिर हमारे दिन सुख से बीतेंगे |

उन्होंने आगे भी उसी तरह मेहनत जारी रखी | इधर, पड़ोसियों की बेचैनी बढ़ती जा रही थी | एक दिन पड़ोस की रम्मो ने फैसला किया कि वह कल्याणी की परेशानी का कारण जानकर ही रहेगी | वह दोपहर को कल्याणी के घर जा पहुंची | कल्याणी बर्तन बनाने में व्यस्त थी |

रम्मो ने इधर-उधर की बातें करने के पश्चात् कल्याणी से पूछ ही लिया - "बहन ! पहले जो तुम रोज शाम को मधुर गीत गुनगुनाती थीं, आजकल तुम्हारा गीत सुनाई नहीं देता |"

कल्याणी ने 'यूं ही' कहकर बात टालने की कोशिश की और अपने काम में लगी रही | परंतु रम्मो कब मानने वाली थी | वह बात को घुमाकर बोली - "आजकल बहुत थक जाती हो न ? कहो तो मैं तुम्हारी मदद कर दूं |"

कल्याणी थकी तो थी ही, प्यार भरे शब्द सुनकर पिघल गई और बोली - "हां बहन, मैं सचमुच बहुत थक जाती हूं, पर क्या करूं हम बड़ी मुश्किल से सौ पूरे कर पाए हैं |"

"क्या मतलब ?" रम्मो बोली तो कल्याणी ने पूरा किस्सा कह सुनाया | रम्मो बोली - "बहन, तुम दोनों तो गजब के चक्कर में पड़ गए हो, तुम्हें इस चक्कर में पड़ना ही नहीं चाहिए था | यह चक्कर आदमी को कहीं का नहीं छोड़ता |"

कल्याणी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा - "तुम किस चक्कर की बात कर रही हो ? मैं कुछ समझी नहीं |"

"अरी बहन, निन्यानवे का चक्कर |" रम्मो का जवाब था |

เคฒोเค• เค•เคฅा : เค…ंเคคเคนीเคจ เคœเคฐूเคฐเคคें

                 भारतिय लोककथा

                  अंतहीन जरूरतें

बिरजू एक गरीब चरवाहा था | दिन भर दूसरों की गाएं चराकर शाम को थका-मांदा घर लौटता था | उसकी कमाई केवल इतनी थी कि मुश्किल से एक वक्त की रोटी जुटा पाता था |

उसके दो छोटे बच्चे थे | दोनों ही पूर्ण भोजन न मिल पाने के कारण बेहद दुर्बल थे | बिरजू बहुत परेशान रहता था कि किसी तरह उसकी आमदनी बढ़ जाए | 

एक दिन की बात है | बिरजू जंगल में बैठा भगवान का ध्यान कर रहा था कि अचानक उसे महसूस हुआ कि उसके सामने कोई खड़ा है | उसने गरदन उठाई तो साक्षात् ईश्वर के दर्शन किए |

ईश्वर बोले - "हम तुम्हारी मेहनत और ईमानदारी से खुश हुए हैं | तुम कोई एक इच्छा करो, हम उसे पूरा कर देंगे |"

बिरजू बोला - "मैं बहुत गरीब हूं | अगर मेरे पास भी अपनी गाय होती तो मैं सुखी हो जाता |"

ईश्वर ने उसकी प्रार्थना सुन ली और उसे एक गाय दे दी | अब बिरजू सुबह उठकर गाय का दूध दुहता | दिन में गाय को बाहर चराकर लाता | शाम को फिर गाय का चारा काट कर सानी तैयार करता | फिर रात को दूध दुहता |

इस प्रकार बिरजू का पूरा दिन गाय के काम-काम में बीतने लगा | उसके बच्चों को दूध मिलने लगा | उसकी पत्नी भी गाय की देखभाल व घर का काम-काम करती | इसी तरह कुछ दिन बीत गए |

तब बिरजू सोचने लगा कि गाय का दूध सारा घर में ही खर्च हो जाता है | थोड़ा बहुत ही दूध बचता है | चलो उसे दूसरों को बेच दिया करूं | इससे कुछ आमदनी बढ़ेगी |

धीरे-धीरे वह गाय का काफी दूध बेचने लगा | थोड़ा समय बीता तो बिरजू को लगने लगा कि यदि उसके पास गाय की जगह भैंस होती तो कितना अच्छा होता | वह सारा दूध बेच भी लेता जिससे उसकी आय बढ़ जाती और घर में बच्चों व पत्नी को भी दूध की कमी न रहती |

वह परेशान रहने लगा | एक दिन वह विचारों में खोया था कि उसे पुन: ईश्वर के दर्शन हुए | ईश्वर बोले - "क्या बात है पुत्र, बहुत परेशान लगते हो |"

बिरजू बोला - "प्रभु, आपकी कृपा से मुझे गाय मिल गई परंतु यदि मेरे पास गाय की जगह एक तगड़ी भैंस होती तो मैं ज्यादा सुखी हो जाता | परंतु तब मुझे यह बात सूझी ही न थी |"

"चिंता क्यों करते हो पुत्र ! मैं तुम्हारी इच्छा पूरी किए देता हूं |" कहकर ईश्वर अन्तर्धान हो गए |

बिरजू को भैंस मिल गई | उसकी भैंस सुबह-शाम 15 किलो दूध देती |वह दूध हलवाई के यहां बेच आता | इस तरह उसकी आमदनी बढ़ गई | वह खुश रहने लगा | उसके बच्चे स्कूल जाने लगे | पत्नी अच्छे कपड़े पहनने लगी |

कुछ दिन बाद बिरजू फिर सोचने लगा कि एक भैंस से क्या काम चलता है | उसने गलती की जो ईश्वर से एक ही भैंस मांगी, उसे कम से कम पांच भैंसें मांगनी चाहिए थीं |

वह आंखें बंद किए सोच ही रहा था कि ईश्वर ने उसे पुन: दर्शन दिए पर पूछा - "क्या बात है पुत्र, तुमने गाय मांगी, मैंने तुम्हें गाय दी | फिर भी तुम सुखी नहीं हुए | फिर तुमने भैंस मांगी, मैंने तुम्हें भैंस दी | परंतु तुम अभी भी परेशान और दुखी दिखाई देते हो |"

"प्रभु, यह ठीक है कि मैंने भैंस मांगी थी, परंतु एक भैंस से घर के खर्च पूरे नहीं हो पाते, इस कारण मैं परेशान हूं |" बिरजू बोला |

ईश्वर बोले - "फिर क्या चाहते हो ? चलो मैं तुम्हारी एक इच्छा और पूरी कर देता हूं, लेकिन यह अंतिम इच्छा होनी चाहिए |"

बिरजू सोचने लगा कि अभी तक मैं पांच भैंसे लेने की सोच रहा था | लेकिन भगवान कह रहे हैं तो अब मुझे अंतिम इच्छा पूरी करा लेनी चाहिए | अत: मुझे पांच की जगह दस भैंसे मांगनी चाहिए | अत: बिरजू बड़े विचार के बाद बोला - "प्रभु, छोटा मुंह बड़ी बात न समझें तो मुझे दस भैंस दिलवा दें | फिर मैं आपसे कुछ नहीं मांगूगा |"

प्रभु बोले, "ऐसा ही होगा |" और अन्तर्धान हो गए | बिरजू बहुत खुश हो गया | 

अब उसके सामने समस्या हुई कि इतनी भैंसों को रखे कहां ? वह मुसीबत में पड़ गया | इतनी सारी भैंसे रखने के लिए बहुत सारी जमीन चाहिए थी | जमीन के भाव बहुत ऊंचे थे |

उसने दिमाग पर जोर लगाया और दो भैंसे बेचकर थोड़ी-सी जमीन खरीद ली | उसके चारों तरफ बाड़ लगा ली और भैंसों की देखभाल करने लगा | लेकिन इतनी सारी भैंसों की देखभाल करना उसके अकेले के वश में नहीं था |

कभी भैंसों के लिए चारे की जरूरत होती, तो कभी भैंसों का गोबर साफ करना होता | कभी इतनी सारी भैंसों का दूध निकालने की समस्या होती |

इस काम में सहायता के लिए उसने 2-3 नौकर रख लिए | सब नौकर अलग-अलग काम करते थे | कोई गोबर उठाता, कोई सफाई करता तो कोई भैंसों का दूध दुहता | फिर उसने उन भैसों का दूध जगह-जगह भेजने का प्रबन्ध कर दिया | इस काम के लिए दो लड़के रख लिए जो घर-घर दूध बेचने जाते थे |

बिरजू की डेयरी चल निकली, उसके पास धन की कमी न रही | अब उसके दोनों बच्चे बड़े होने लगे थे | उन बच्चों की बड़ी-बड़ी फरमाइशें होने लगीं | पत्नी को रोज जेवरों की चाह बनी रहती |

कुछ दिन यूं ही बीत गए | धीरे-धीरे बिरजू को लगने लगा कि उसने कैसा गंदा धंधा कर रखा है | डेयरी में चारों तरफ मक्खियां भिनभिनाती रहती हैं, हर तरफ गोबर पड़ा रहता है |

बिरजू सोचने लगा कि वह शहर में होता तो अपने बच्चों को अच्छे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाता | क्या ही अच्छा होता कि उसकी भैंस और दूध के कारोबार की जगह शहर में कोई अच्छा व्यापार या दुकान होती या कोई छोटी-मोटी फैक्टरी होती |

धीरे-धीरे बिरजू अपने काम से ऊब कर परेशान रहने लगा | वह बार-बार ईश्वर को याद करने लगा | वह सोचता कि किसी तरह एक बार प्रभु उसे फिर दर्शन दे दें तो कितना अच्छा हो | मैंने मांगा भी तो क्या ? भैंसे और दूध का व्यापार ? यह भी कोई काम है ? उसे कोई ढंग का काम मांगना चाहिए था |

एक दिन वह बैठा ईश्वर की प्रार्थना कर रहा था कि उसे लगा कि ईश्वर उसके सामने हैं | उसने आंखें उठाकर देखा तो ईश्वर के साक्षात् दर्शन किए | वह ईश्वर के पैरों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाकर बोला - "हे प्रभु मैं तो निरा बेवकूफ हूं | मैंने आपसे जो मांगा सो आपने दिया | परंतु जाने क्या सोचकर मैंने आपसे भैंसे मांग लीं, मुझे इनकी कतई जरूरत नहीं | आप मेरी एक इच्छा और पूरी कर दीजिए फिर मैं आपसे कभी कुछ नहीं मांगूंगा |"

ईश्वर बोले - "उठो वत्स, मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि यह आखिरी इच्छा है, सोच-समझ कर मांगना और तुमने खूब सोच-विचार कर दस भैंसे मांगीं थीं | अब तुम कहते हो कि तुम्हें भैंसे नहीं चाहिए | लेकिन मैं मजबूर हूं क्योंकि तुम्हारी इच्छाएं अनन्त हैं | एक के बाद दूसरी इच्छा जन्म लेती जाती है | तुम जैसे थे वैसे ही रहो |"

यह कहकर ईश्वर अन्तर्धान हो गए |

เคตिเคฆेเคถी เคฒोเค•เค•เคฅा : เคชिเคคा เค•ी เคธीเค–

                     इटली की लोककथा

                         पिता की सीख

सेठ जानसन के पास धन-दौलत और ऐशो-आराम की कोई कमी न थी | उसका गांव में बहुत बड़ा व्यापार था | लोग उसकी इज्जत करते थे |

लेकिन जानसन को अपने पुत्र के बारे में एक चिंता खाए जाती थी कि उसका पुत्र थामस उसके बाद कैसे उसका व्यापार संभालेगा ? थामस अठारह वर्ष का होने को था परंतु किसी भी काम के प्रति गंभीरता से ध्यान नहीं देता था | वह पिता के काम में भी अधिक हाथ न बंटाता था |

चूंकि थामस को बचपन से ही सारे सुख-आराम मिले थे, सो वह पैसे का मोल न समझता था | वह हर चीज या काम के प्रति लापरवाह था | यो उसमें बुद्धि की कमी न थी, परंतु वह अपने आपको जरूरत से ज्यादा होशियार समझता था | वह सोचता कि वह लोगों को बेवकूफ बना सकता है, परंतु कोई उसे बेवकूफ नहीं बना सकता |

सेठ जानसन थामस को अक्सर समझाया करता था कि काम में ध्यान लगाया करो, किसी भी काम में लापरवाही ठीक नहीं होती परंतु थामस एक कान सुनता, दूसरे कान से निकाल देता |

एक बार सेठ ने अपने पुत्र की बुद्धिमत्ता परखने के लिए उससे कहा - "जाओ शहर चले जाओ | यह बकरी बूढ़ी हो चली है | इसे बेच आना | इसकी कीमत के बदले में व्यापार के लिए सौदा खरीद लाना |"

पुत्र थामस बोला - "पिताजी यह बकरी कितने की है ? इसकी कितनी कीमत मिलनी चाहिए ?" 

सेठ बोला - "बकरी की कीमत चार सौ लीरा है | हां, चाहो तो घोड़ा ले जाओ | परंतु ध्यान से जाना | दुनिया अनेक धूर्त और ठगों से भरी पड़ी है | किसी अन्जान व्यक्ति का आसानी से विश्वास नहीं करना चाहिए |"

थामस बात को हंसी में टालते हुए बोला - "अरे पिता जी, कोई मुझे बेवकूफ नहीं बना सकता | मैं बकरी को चार सौ में नहीं पांच सौ लीरा में बेचूंगा | आप देखते रह जाएंगे जब मैं समझदारी से सौदा खरीद कर लौटूंगा |"

थामस घोड़े पर बैठकर शहर की ओर चल दिया | बकरी के गले में उसने घंटी बांध दी और उसकी डोरी को घोड़े के पीछे बांध दिया | थामस स्वयं घोड़े पर बैठ गया और घोड़ा धीरे-धीरे चल दिया | पीछे-पीछे बकरी भी चल दी |

बकरी की घंटी से उसे आभास हो रहा था कि बकरी पीछे आ रही है | वह घोड़े पर आराम से बैठा चला जा रहा था, साथ ही समय बिताने के लिए कुछ गुनगुनाता जा रहा था |

रास्ते में कुछ ठगों ने देखा कि एक युवक मस्ती में घोड़े पर चला जा रहा है, पीछे-पीछे बकरी भी चल रही है |

उनमें से एक ठग धीरे से बोला - "मैं इसकी बकरी आराम से चुरा सकता हूं |"

यह सुनकर दूसरे आदमी को भी जोश आ गया वह बोला - "बकरी चुराना कौन-सी बड़ी बात है, मैं तो वह घोड़ा भी चुरा सकता हूं जिस पर बैठकर वह गीत गुनगुनाता जा रहा है |"

पहला ठग बोला - "नहीं, घोड़ा चुराना तो मुश्किल है, मैं तो बकरी ही चुरा सकता हूं |" सारे ठग थामस के पीछे-पीछे चल दिए | इतने में तीसरा ठग बोला - "तुम लोग तो यूं ही डरते हो | मैं तो इसके पहने हुए कीमती कपड़े व पैसे भी चुरा सकता हूं |"

सब ठगों में बहस होने लगी कि कौन पहले क्या चुराएगा | इन ठगों से बेखबर थामस आगे की तरफ बढ़ता जा रहा था | इतने में ठगों में यह तय हुआ कि जिस ठग ने पहले चोरी का प्रस्ताव रखा था, वही पहले चुराएगा | अत: पहला ठग बकरी चुराने के लिए आगे चल दिया |

उस ठग ने चुपचाप बकरी की डोरी खोल ली और साथ-साथ चलने लगा | फिर चुपचाप घंटी निकालकर घोड़े की पूंछ में बांध दी और बकरी लेकर नौ दो ग्यारह हो गया |

चूंकि घंटी की आवाज लगातार आ रही थी, अत: थामस को पता न लगा | उसे चले कुछ घंटे हो गए थे, अत: सोचने लगा कि पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ता लूं | ज्यों ही वह घोड़े से उतरा, बकरी को पीछे न बंधा देखकर घबरा गया |

थामस हड़बड़ाहट में हर आने-जाने वाले से बकरी के बारे में पूछने लगा | इतने में एक व्यक्ति ने बताया कि थोड़ी ही दूरी पर वैसी ही बकरी लेकर एक आदमी को उसने जाते हुए देखा है |

थामस ने उस व्यक्ति को रास्ता बताने के लिए धन्यवाद दिया और बोला - "आप बहुत सज्जन पुरुष हैं | आपने बकरी के बारे में बताकर मेरी बड़ी सहायता की है | आप मुझ पर एक उपकार और कर दीजिए | मैं बकरी चोर को पकड़कर लाता हूं | तब तक आप मेरा घोड़ा संभाल लीजिए | मैं अभी गया और अभी आया |"

थामस यह कहकर उसी दिशा में भागा जहां उस व्यक्ति ने बताया था | परंतु उसे बकरी व चोर कहीं न मिला | हारकर कुछ देर बाद वह वापस उसी स्थान पर आ गया जहां उस सज्जन को घोड़ा पकड़ा कर गया था |

उस पेड़ के नीचे उस व्यक्ति व घोड़े को न देखकर थामस को रोना आने लगा | उसे अब समझ में आया कि घोड़ा चोर भी बकरी चोर का ही साथी था |

अब थामस का दिमाग काम नहीं कर रहा था | वह बहुत दुखी था | वह सोच रहा था कि किस आसानी से वह व्यक्ति उससे घोड़ा छीन कर ले गया | वह दुखी मन से गांव की ओर वापस जाने लगा |

थामस थोड़ी ही दूर जा पाया था कि उसने देखा, एक व्यक्ति कुएं के पास फूट-फूट कर रो रहा है | थामस को लगा कि मैं भी बहुत दुखी हूं, यह व्यक्ति भी दुखी लगता है, इसके साथ मुझे अपना दुख बांट लेना चाहिए ताकि मन का बोझ हल्का हो सके |

थामस उसके पास जाकर दुखी स्वर में बोला - "भाई, तुम क्यों रो रहे हो ? मेरा दुख तो तुमसे भी बड़ा है | आज मैंने बड़ा धोखा खाया है |"

वह व्यक्ति बोला - "नहीं भाई, तुम्हारा दुख मुझसे बड़ा नहीं हो सकता, मेरे लिए तो आज जीने - मरने का प्रश्न आ गया है | वैसे बताओ, तुम्हें क्या दुख है ?"

थामस बोला - "भैया मेरी लापरवाही के कारण ही आज मेरी बकरी चोरी हो गई | मेरा घोड़ा मेरी आंखों के सामने लुट गया | मैं बहुत दुखी हूं | मैं अपने आपको बड़ा अक्लमंद समझता था |"

थामस की बात सुनकर वह व्यक्ति जोर-जोर से रोने लगा | थामस ने पूछा - "बताओ तो सही, बात क्या है, शायद मैं तुम्हारी कुछ मदद कर सकूं |"

वह व्यक्ति रोते हुए बोला - "मैं एक सोने के व्यापारी के यहां काम करता हूं | उसकी बेटी की शादी है | मेरे मालिक ने अपनी बेटी के लिए हीरों का कीमती हार बनवाया था | मैं यहां रुका था, तो मेरे हाथ से वह हीरों के हार का डिब्बा कुएं में गिर गया |"

अब मैं किस मुंह से मालिक के पास जाऊं, वह तो यही समझेगा कि हार मैंने चुराया है और पीट-पीटकर मुझे मार डालेगा |

थामस बोला - "तुम कुएं में उतर कर हार क्यों नहीं ढूंढ़ लाते ?"

"क्या करूं, इधर भी मौत है उधर भी मौत, उधर मालिक मार डालेगा तो इधर मैं कुएं में डूब कर मर जाऊंगा | मुझे तो तैरना भी नहीं आता और यहां कोई मेरी मदद करने वाला भी नहीं है |" यह कहकर वह व्यक्ति और जोर से सुबक-सुबक कर रोने लगा |

थामस को उस व्यक्ति पर तरस आने लगा | वह बोला - "ठीक है, मैं कोशिश करता हूं | शायद तुम्हारे हीरे मिल जाएं और तुम्हारी जान बच जाए | लेकिन तब तक तुम मेरे सामान का ध्यान रखना | हां, अगर मैं हार निकाल लाया तो बदले में तुम मुझे क्या दोगे ?"

"मैं तुम्हें बीस अशर्फी दूंगा |" वह व्यक्ति बोला - "लेकिन दस अशर्फी मैं काम से पहले लूंगा और दस काम के बाद |" थामस बोला | उसने मन में सोचा कि चलो मेरा इतना नुकसान हो चुका है इस तरह थोड़ी भरपाई जरूर हो जाएगी |

उस व्यक्ति ने अशर्फी थामस को दे दीं | थामस ने सोचा कि यदि मैं अशर्फी लेकर कुएं में उतरा और अशर्फी कुएं में गिर गईं तो मेरा फिर नुकसान हो जाएगा | अत: थामस ने अपने कपड़े, घड़ी, धन, अशर्फी, सोने की चेन उतारकर उस अजनबी को पकड़ा दीं और स्वयं आहिस्ता से कुएं में उतर गया | थामस बड़ी देर तक कुएं में हीरे का हार ढूंढ़ता रहा परंतु हार होता तो मिलता |

वह थक कर कुएं से बाहर आया तो उस व्यक्ति को बाहर न पाकर भौचक्का रह गया | वह व्यक्ति थामस के कपड़े व सारा सामान लेकर भाग गया था | थामस के दुख का ठिकाना न था वह वहीं बैठकर फूट-फूटकर रोने लगा |

थामस शर्म से जमीन में गड़ा जा रहा था कि कैसे नंगे बदन गांव वापस लौटेगा ? कैसे अपने पिता को अपना मुंह दिखाएगा | उसे अपनी बेवकूफी पर पश्चाताप हो रहा था | तभी उसके गांव का एक परिचित उधर से गुजरा |

उसने थामस की हालत देखी तो उसके पास आ गया | थामस को अपने कपड़े पहनाकर गांव वापस ले आया | आज थामस को अपनी भूल पर पछतावा हो रहा था | पिता की सीख पर ध्यान न देने का सबक उसे मिल चुका था | 

เคตिเคฆेเคถी เคฒोเค•เค•เคฅा : เค•เคฎाเคฒ เค•ा เคฆिเคจ

          उज़्बेकिस्तान की लोककथा

                 कमाल का दिन

खजूरी इतनी बातूनी थी कि जहां कहीं उसे कोई बात करने वाले मिल जाए, वह उसे ढेर सारी बातें सुनाए बिना नहीं छोड़ती थी | गांव में उसकी ढेरों सहेलियां थीं | उसका जब कभी बातें करने का मन करता तो कभी किसी के घर चली जाती, तो कभी किसी के घर |

स्त्रियां उसकी बातें सुनकर खूब आनन्दित होती थीं | खजूरी के पास जब कोई बात सुनाने को न होती तो वह बड़ी-बड़ी गप्पें हांका करती | कभी-कभी तो वह ऐसी गप्प हांकती कि लोगों को यकीन हो जाता कि वह सच बोल रही है |

ज्यादा बातूनी होने के कारण वह अपने घर की निजी बातें भी लोगों को बता देती थी | असल में उसके पेट में कोई बात पचती ही नहीं थी | इस कारण उसे जो भी इधर-उधर की बात पता लगती, बढ़ा-चढ़ा कर दूसरों को बता आती थी | कुछ लोग तो उसकी गप्प मारने व ज्यादा बोलने की आदत से बहुत परेशान थे |

उसकी इस आदत से सबसे ज्यादा परेशान उसका पति अन्द्रेई था | वह उसे हरदम समझता था कि कम बोला करो, घर की बातें बाहर मत बताया करो | परंतु खजूरी के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी | बातें करने के चक्कर में अक्सर उसे खाना बनाने को देर हो जाया करती थी |

कभी-कभी तो वह घर के जरूरी काम तक भूल जाती थी | शाम को जब थका हुआ अन्द्रेई खेत से लौटता तो उसे खूब डांटता | खजूरी अपनी आदत से मजबूर थी | गप्पें उसके लिए समय बिताने का सबसे अच्छा साधन थीं |

एक बार अन्द्रेई अपने खेत में हल चला रहा था | तभी उसके हल से कोई वस्तु टकराई, खन-खन की आवाज सुनकर वह चौकन्ना हो गया | उसने हाथ से थोड़ी मिट्टी खोदी तो उसे यकीन हो गया कि यहां कोई धातु की चीज गड़ी हुई है | उसने उस स्थान पर निशान लगा दिया |

वह सारे दिन चुपचाप खेत पर काम करता रहा ताकि दिन की रोशनी में कोई उसे जमीन खोदते न देख ले | जब शाम हो गई और हल्का अंधेरा होने लगा तो उसने मौका पाकर खेत में उसी स्थान पर खुदाई शुरू कर दी |

थोड़ी ही देर में जगमगाता खजाना उसके सामने था | उस खजाने में हीरे-मोती, सोने के आभूषणों का ढेर था | वे सब एक स्वर्ण कलश में भरे हुए थे | उस खजाने को देखकर अन्द्रेई की बांछें खिल गईं |

ज्यों ही अन्द्रेई वह खजाना घर ले जाने के लिए निकालने लगा त्यों ही उसे याद आया कि उसकी पत्नी को जैसे ही खजाने का पता लगेगा वह सारे शहर में ढिंढोरा पीट देगी, फिर तो खजाना राजा के पास चला जाएगा | उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह खजाने को क्या करे ? घर ले जाए तो पत्नी से कैसे छिपाए ?

उसने खजाने को वहीं पास के जंगल में दबा दिया और मन ही मन एक योजना बनाई | फिर वह घर पहुंच गया | घर जाकर खजूरी से कहा कि आज मेरी पूरियां खाने का मन है, जरा जल्दी से बना दो |

खजूरी बोली - "आज कोई खास बात है क्या ?"

"हो सकता है, कोई खुशखबरी हो | तुम्हें बाद में बताऊंगा |" अन्द्रेई ने कहा |

सुनकर खजूरी को जोश आ गया और वह खुशखबरी जानने को बैचेन हो गई और फटाफट पूरियां बनाने लगी | अन्द्रेई चुपचाप पूरियां खाने लगा | वह एक साथ 4-5 पूरी उठाता और उसमें एक-एक पूरी स्वयं खाता, बाकी चुपचाप थैले में डाल लेता | उसकी पत्नी यह देखकर भौचक्की हुई जा रही थी कि अन्द्रेई इतनी तेजी से पूरियां खाए जा रहा है |

जब अन्द्रेई का थैला पूरियों से भर गया तो बोला अब मेरा पेट भर गया | खजूरी बोली - "अब खुशखबरी तो बताओ |"

अन्द्रेई बोला - "खुशखबरी यह है कि आज राजा के बेटे की शादी है | पूरा शहर रोशनी से जगमगा रहा है | मैं जगमग देखकर थोड़ी देर में लौटता हूं |"

अन्द्रेई चुपचाप थैला उठाकर चल दिया और बाजार जाकर बहुत सारी जलेबियां और मछलियां खरीद लीं, फिर अपनी योजना के अनुसार जंगल में पूरी तैयारी कर आया |

जब वह खुशी-खुशी घर लौटा तो पत्नी उसकी राह देख रही थी | उसने पत्नी के कान में फुसफुसा कर कहा - "जानती हो, दूसरी बड़ी खुशखबरी क्या है ?.... हमें बहुत बड़ा खजाना मिला है | जल्दी से तैयार हो जाओ | हम खजाना रात में घर लेकर आएंगे |"

खजूरी जल्दी से तैयार हो गई | कुछ ही देर में वे जंगलों से गुजर रहे थे | अचानक एक पेड़ की नीची टहनी से खजूरी के सिर पर कुछ टकराया | उसने सिर झुकाकर ऊपर की चीज पकड़ने की कोशिश की तो देखा हाथ में जलेबी थी | खजूरी जलेबी देखकर हैरान रह गई | वह अन्द्रेई से बोली - "सुनते ही जी, यहां पेड़ पर जलेबी लटकी थी, मेरे हाथ में आ गई | है न कैसी आश्चर्य की बात ?"

अन्द्रेई बोला - "इसमें आश्चर्य की क्या बात है ? ये जलेबियों के ही पेड़ हैं, क्या तुमने जलेबी का पेड़ नहीं देखा ?"

खजूरी आश्चर्यचकित होकर ऊपर देखने लगी | उसने देखा, सभी पेड़ों पर ढेरों जलेबियां उगी हैं | वह उनमें से दो-तीन जलेबी तोड़कर आगे बढ़ने लगी और चलते-चलते खाने लगी | वह बोली - "आज कमाल का दिन है | आज ही हमें खजाना मिला है, आज ही राजा के बेटे की शादी है, आज ही मैंने जलेबियां के पेड़ देखे हैं ?"

"हां, वाकई आज कमाल का दिन है |" अन्द्रेई ने हां में हां मिलाई |

वे जंगल में कुछ ही दूर गए थे कि खजूरी ने देखा जंगल में स्थान-स्थान पर मछलियां पड़ी थीं | वहां जमीन भी हल्की-सी गीली थी | कुछ मछलियां मरी हुई थीं और कुछ हिल-डुल रही थीं | उनमें अभी जान बाकी थी |

इतने में अन्द्रेई खजूरी से बोला - "लगता है आज जंगल में मछलियों की बारिश हुई है और मजे की बात यह है कि यह बारिश अभी थोड़ी ही देर पहले हुई लगती है क्योंकि कुछ मछलियां जिंदा हैं | आज तो हम जरा जल्दी में हैं, वरना मछलियां अपने थैले में भर लेते, खाने के काम आतीं |"

खजूरी ने विस्मय से आंखें फैलाकर पूछा - "क्या कहा, मछलियों की बारिश ? यह तो कमाल हो गया | वाकई आज कमाल का दिन है | मुझे एक और नई चीज देखने और सुनने को मिल रही है | मैंने तो मछलियों की बारिश के बारे में आज तक नहीं सुना |"

"असल में तुम्हें बाहर की चीजों का पता नहीं रहता, क्योंकि तुम घर में ही रहती हो | वरना तुम्हें जंगल में मछलियों की बारिश का अवश्य पता होता |" अन्द्रेई बोला |

वे आगे बढ़ने लगे | रात का अंधियारा बढ़ता जा रहा था | कुछ ही देर में कंटीली झाड़ियों पर कोई सफेद-सी वस्तु दिखाई देने लगी | खजूरी पहले से ही आश्चर्य में डूबी हुई थी | आगे झुककर देखने लगी - "यह सफेद-सफेद गोल-सा क्या हो सकता है ?" इतने में उसने हाथ बढ़ाया और बोली - "झाड़ पर पूरियां ? लगता है कि जलेबी के पेड़ की तरफ जंगल में पूरियों के झाड़ भी होते हैं | अब मुझे समझ आ गया कि जंगल में कैसे अनोखे पेड़ होते हैं |"

अन्द्रेई ने कहा - "लगता है तुम्हें एक ही दिन में जंगल की सारी चीजों की अच्छी जानकारी हो गई है | तुमने पूरियों के झाड़ भी पहली बार देखे हैं न ?"

"हां, सो तो है | अब आज कमाल का दिन है तो कमाल ही कमाल देखने को मिल रहे हैं | चलो, अब यह भी बताओ, खजाना कहां है ?" खजूरी बोली |

"हम खजाने के पास पहुंचने ही वाले हैं | वो देखो, पास के तालाब में किसी ने जाल बिछाया हुआ है | मैं देखता हूं कि जाल में कुछ फंसा या यूं ही लटका हुआ है |"

अन्द्रेई ने आगे बढ़कर जाल उठा लिया | जाल देखकर खजूरी आश्चर्य से आंखें फैलाते हुए बोली - "पानी के अंदर खरगोश ? यह कैसे हो सकता है | क्या जंगल में खरगोश पानी में भी रहते हैं ?"

"हां, हां क्यों नहीं, सामने देखो खजाना यहीं है | अब हम खजाना निकालेंगे |" अन्द्रेई ने रुकते हुए कहा |

एक स्थान से मिट्टी खोदकर अन्द्रेई ने सोने का कलश निकाल का खजूरी को खजाना दिखाया | खजूरी की खुशी और विस्मय देखते ही बनता था |

अन्द्रेई ने चुपचाप गड्ढा वापस भरा और अपने दुशाले में कलश को ढक लिया | कुछ ही देर में अन्द्रेई और खजूरी खजाना लेकर वापस घर पहुंचे | दोनों ही चल-चलकर थक गए थे | अत: दोनों ने सलाह की कि सुबह उठकर सोचेंगे कि हमें इस खजाने का क्या इंतजाम करना है, अभी सो जाते हैं |

दोनों लेटते ही सो गए | सोते ही अन्द्रेई को खजाने के बारे में बुरे-बुरे सपने आने लगे और कुछ ही देर में अन्द्रेई घबराकर उठ बैठा | उसने देखा खजाना सही-सलामत घर में रखा है और सुबह होने में देर है |

अन्द्रेई चुपचाप उठा और स्वर्ण कलश को ढककर सुरक्षित स्थान पर रख आया, फिर चैन से सो गया |

सुबह निकले 2-3 घंटे हो चुके थे, पर अन्द्रेई सोया हुआ था | अचानक घर के बाहर शोर-शराबा सुनकर अन्द्रेई की आंख खुली |

उसने उठकर देखा, बाहर लोगों की भीड़ जमा थी | पूछने पर पता लगा कि लोग खजाना देखने आए थे | उसकी पत्नी खजूरी सुबह ही पानी भरने गई तो अपनी पड़ोसिनों को खुशखबरी सुना आई थी कि हमें बहुत बड़ा खजाना मिला है | अत लोग उसे बधाई देने व खजाने के दर्शन करने आए थे |

अन्द्रेई ने लोगों से कहा - "लगता है मेरी पत्नी ने सपने में कोई खजाना देखा है, जिसके बारे में उसने आप लोगों को बताया है | मुझे तो ऐसा कोई खजाना नहीं मिला |"

लोग निराश होकर लौट गए | बात फैलते-फैलते राजा तक पहुंच गई | राजा ने अन्द्रेई को बुलवा भेजा | अन्द्रेई की राजा के सामने पेशी हुई |

राजा ने पूछा - "सुना है, तुम्हें कोई बहुत बड़ा खजाना मिला है ? कहां है वह खजाना ?"

"हुजूर, मुझे तो ऐसा कोई खजाना नहीं मिला | मुझे समझ में नहीं आ रहा कि आप क्या बात कर रहे हैं ?" अन्द्रेई बोला |

"यह कैसे हो सकता है | तुम्हारी पत्नी ने स्वयं लोगों को उस खजाने के बारे में बताया है |" राजा ने कहा |

"हुजूर माफ करें मेरी पत्नी बहुत गप्पी है | आप उसकी बात का यकीन न करें |"

"नहीं, हम इस बात की परीक्षा स्वयं करेंगे," राजा ने कहा | फिर राजा ने अन्द्रेई की पत्नी खजूरी को अगले दिन दरबार में पेश होने की आज्ञा दी |

खजूरी खुशी-खुशी राजा के दरबार में हाजिर हो गई |

राजा ने पूछा - "सुना है कि तुम्हें कोई बड़ा खजाना मिला है |"

"जी माई बाप, आप सही फरमा रहे हैं | हमें वह खजाना 2-3 दिन पहले मिला था |" खजूरी बोली |

राजा ने पूछा - "तुम्हें वह खजाना कहां मिला, जरा विस्तार से बताओ ?"

खजूरी आत्मविश्वास से भर कर बोली - "हुजूर, उस दिन कमाल का दिन था, परसों की ही बात है | हुजूर उस दिन राजा के यानी आपके बेटे की शादी भी थी | मेरे पति शहर की जगमग देखने गए थे |"

राजा एकदम चुप हो गया, फिर बोला - "मेरा तो कोई शादी लायक बेटा नहीं है | मेरा बेटा तो सिर्फ चार वर्ष का है | तुम्हें ठीक से तो याद है न ? जरा सोच-समझ कर बोलो |"

खजूरी बोली - "साहब, हम उसी रात को खजाना लेने गए थे, उस दिन कमाल का दिन था | मैंने उस दिन पहली बार जलेबियों के पेड़ देखे | बहुत सारी जलेबियां तोड़कर खाईं भी |"

राजा आश्चर्य से खजूरी को देख रहा था - "जलेबियों के पेड़ ?"

"हुजूर, उस कमाल के दिन मैंने मछलियों की बरसात देखी, पानी में रहने वाले खरगोश को देखा और... |"

राजा ने कहा - "लगता है, यह कोई पागल औरत है | इसे यहां से ले जाओ |"

जब राजा के सैनिक उसे बाहर ले जाने लगे तो खजूरी चिल्लाकर कहने लगी |

"मैं सच कहती हूं कि हमें सोने के कलश में खजाना मिला था, उस दिन कमाल का दिन था | मैंने पूरियों के झाड़ भी उसी दिन देखे थे |"

राजा के सैनिकों ने खजूरी को बाहर निकाल दिया | अन्द्रेई बोला - "हुजूर, मैं न कहता था कि मेरी पत्नी की बातों का विश्वास न करें |"

राजा ने अन्द्रेई को छोड़ दिया | अपने दौ सैनिकों को अगले दिन अन्द्रेई के घर भेजा | उन्होंने खजूरी से पूछा - "अच्छा यह बताओ कि घर में खजाना कहां रखा है |"

खजूरी दौड़कर उसी कोने में गई जहां उन्होंने खजाना रखा था | परंतु वहां कोई खजाना न था | वह इधर-उधर देखती रही, परंतु उसे कोई खजाना न मिला | राजा के सिपाही वापस लौट गए |

अन्द्रेई ने खैर मनाई कि उसकी चतुराई से उसका खजाना बच गया था | वे दोनों सुख से रहने लगे | फिर खजूरी ने भी गप्प मारना व ज्यादा बातें करना छोड़ दिया |