Tuesday 28 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคšोเคฐ เค”เคฐ เคฐाเค•्เคทเคธ เค•ी เคฒเฅœाเคˆ

                              पंचतंत्र

                   चोर और राक्षस की लड़ाई

किसी गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था॥ वह इतना गरीब था कि अपने लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाता था। उसी गाँव में एक धनी व्यापारी रहता था। उस व्यापारी को पंडित की दशा देख कर दया आ गई। उसने पंडित को दो बछड़े दान में दिए। पंडित ने बड़े जतन से उन बछड़ों को पाल पोस कर बड़ा किया। कुछ साल बीतने के बाद दोनों बछड़े बड़े होकर तगड़े बैल बन गए।

उन बछड़ों पर एक चोर की नजर थी। उसने उस पंडित से बैलों को चुराने की एक योजना बनाई। उसे गाँव के पास एक श्मशान में एक राक्षस रहता था। वह राक्षस भी उन बैलों को अपना भोजन बनाना चाहता था। एक रात को वह चोर अपने काम पर लग गया। जब वह पंडित के घर में घुसा तो देखा कि राक्षस तो पहले से जमा हुआ है। अब दोनों में इस बात को लेकर झगड़ा शुरू हो गया कि बैलों पर किसका अधिकार होना चाहिए।

चोर इस बात से भी चिंतित था कि उनके झगडे के शोरगुल से पंडित की नींद ना खुल जाए। राक्षस भी इस बात को लेकर चिंतित था कि कहीं बैल डर गए तो पंडित उठ जाएगा। लेकिन दोनों में से कोई इस बात पर राजी नहीं था कि एक-एक बैल लेकर चला जाए। इस कोलाहल से पंडित की नींद टूट गई।

जब पंडित जगा तो उसने चोर और राक्षस को आपस में झगड़ते हुए देखा। पंडित ने कोई मन्त्र पढ़ना शुरू कर दिया। मन्त्र के प्रभाव से राक्षस दर गया और वहां से भाग गया। चोर ने सोचा कि जब वह पंडित उस राक्षस को डरा सकता है तो उस जैसे अदने से मनुष्य की क्या औकात। चोर भी डर कर वहां से भाग गया।

सीख :- जब दो लोग झगड़ रहे हों तो इससे किसी तीसरे व्यक्ति को फ़ायदा होता है।

Sunday 26 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฎूเคฐ्เค–เคธाเคงु เค”เคฐ เค เค—

                        पंचतंत्र

                  मूर्खसाधु और ठग

देव शर्मा नाम का एक प्रतिष्ठित साधू रहता था। गाँव में सभी उसका सम्मान करते थे। उसे अपने भक्तों से दान में तरह तरह के वस्त्र, उपहार, खाद्य सामग्री और पैसे मिलते थे। उन वस्त्रों को बेचकर साधू ने काफी धन जमा कर लिया था।

साधू कभी किसी पर विश्वास नहीं करता था और हमेशा अपने धन की सुरक्षा के लिए चिंतित रहता था। वह अपने धन को एक पोटली में रखता था और उसे हमेशा अपने साथ लेकर ही चलता था ।

उसी गाँव में एक ठग रहता था। बहुत दिनों से उसकी निगाह साधू के धन पर थी। ठग हमेशा साधू का पीछा किया करता था, लेकिन साधू उस गठरी को कभी अपने से अलग नहीं करता था ।

कार,उस ठग ने एक छात्र का वेश धारण किया और उस साधू के पास गया। उसने साधू से मिन्नत की कि वह उसे अपना शिष्य बना ले क्योंकि वह ज्ञान प्राप्त करना चाहता था। साधू तैयार हो गया और इस तरह से वह ठग साधू के साथ ही मंदिर में रहने लगा ।

ठग मंदिर की साफ सफाई से लेकर अन्य सारे कम करता था और ठग ने साधू की भी खूब सेवा की और जल्दी ही उसका विश्वासपात्र बन गया।

एक दिन साधू को पास के गाँव में एक अनुष्ठान के लिए आमंत्रित किया गया, साधू ने वह आमंत्रण स्वीकार किया और निश्चित दिन साधू अपने शिष्य के साथ अनुष्ठान में भाग लेने के लिए निकल पड़ा।

रास्ते में एक नदी पड़ी और साधू ने स्नान करने की इक्षा व्यक्त की। उसने पैसों की गठरी को एक कम्बल के भीतर रखा और उसे नदी के किनारे रख दिया। उसने ठग से सामान की रखवाली करने को कहा और खुद नहाने चला गया। ठग को तो कब से इसी पल का इंतज़ार था। जैसे ही साधू नदी में डुबकी लगाने गया, वह रुपयों की गठरी लेकर चम्पत हो गया ।

सीख :  किसी अजनबी की चिकनी चुपड़ी बातों में आकर ही उस पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए।

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคธोเคจे เค•ी เคถिเคฒा เค•ी เคคाเค•เคค

                       पंचतंत्र

           सोने की शिला की ताकत

किसी मंदिर में एक साधु रहता था। उस मंदिर के पास का गाँव काफी संपन्न था। इसलिए साधु को भोजन और वस्त्र की कोई कमी नहीं होती थी। ज्यादातर गांवाले साधु के लिए कुछ न कुछ दान दक्षिणा में अवश्य लाते थे। साधु भी पूरे मन से उन्हें आशीर्वाद देता था। रात के भोजन के बाद वह साधु बचा हुआ खाना मिटटी के एक बर्तन में रखकर छींके पर रख देता था। छींका बहुत ऊंचाई पर टंगा हुआ था।

साधु का जीवन सामान्य गति से चल रहा था लेकिन पिछले कई दिनों से एक अजीब घटना होने लगी थी। रोज रात को एक चूहा उस बर्तन में से खाना चुरा रहा था। साधु को इस बात का आश्चर्य था कि कोई साधारण चूहा कैसे उतनी ऊंचाई तक कूद सकता है। साधु ने यह बात अपने एक मित्र से बताई। दोनों ने तय किया कि उस रहस्य का पता लगाया जाए जिससे चूहे को इतना ऊंचा कूदने की ताकत मिलती है ।

साधु के मित्र ने सलाह दी कि उन्हें चूहे के बिल को खोदकर यह पता लगाना चाहिए कि कौन सी चीज चूहे में इतनी शक्ति भरती है। जब उन्होंने चूहे के बिल को खोदा तो वे अचंभित रह गए। उन्हें बिल में से सोने की एक शिला मिली। तब साधु ने बड़ी अच्छी व्याख्या की। उसने कहा कि चूंकि चूहा इतनी विशाल धनराशि पर बैठा हुआ था इसलिए उसका आत्मविश्वास बढ़ा हुआ था। उन्होंने सोने की उस शिला को राजसी खजाने में जमा करवा दिया। उसके बाद वह चूहा कभी भी इतना ऊंचा नहीं कूद पाया कि छींके में से खाना चुरा सके।

इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि यदि आपके पास प्रचुर मात्रा में संसाधन हो तो आपका आत्मविश्वास बढ़ जाता है।

Friday 24 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฐाเคœเค•ुเคฎाเคฐ เค”เคฐ เคธांเคช

                     पंचतंत्र

            राजकुमार और सांप

राजा देवशक्ति का एक ही पुत्र था। उसके पेट में एक सर्प रहता था। इस कारण राजपुत्र एकदम दुर्बल हो गया था। अनेक वैद्यों ने उसकी चिकित्सा की, फिर भी वह स्वस्थ नहीं हुआ। निराश होकर राजपुत्र एक दिन घर छोड़कर चुपके से निकल पड़ा। वह भटकता हुआ किसी दूसरे राज्य में आ पहुँचा। वह भिक्षा माँगकर पेट भर लेता और एक मंदिर में सो जाता।

उस राज्य के राजा का नाम बलि था। उसकी दो पुत्रियाँ थीं। दोनों युवती थीं। वे प्रतिदिन सुबह-सुबह अपने पिता को प्रणाम करतीं। प्रणाम करने के बाद उनमें से एक कहती, ‘महाराज की जय हो, जिससे हम सब सुखी रहें।’ दूसरी कहती, ‘महाराज, आपको आपके कर्मों का फल अवश्य मिले।’

राजा बलि दूसरी बेटी के कड़वी बातों को सुनकर क्रोध से भर जाता था। एक दिन उसने मंत्रियों को आदेश दिया, ‘कड़वे वचन बोलनेवाली मेरी इस पुत्री का किसी परदेसी से ब्याह कर दो, जिससे यह अपने कर्म का फल भुगते।’

मंत्रियों ने मंदिर में रहने वाले उसी भिखारी राजकुमार के साथ उस राजकुमारी का विवाह कर दिया। राजकुमारी अपने उस पति को प्राप्त करके तनिक भी दुखी नहीं हुई। वह प्रसन्नता के साथ पति की सेवा करने लगी। कुछ दिन बाद वह पति को साथ लेकर दूसरे राज्य में चली गई। 

वहाँ उसने एक सरोवर के किनारे पर बसेरा बना लिया। एक दिन राजकुमारी अपने पति को घर की रखवाली के लिए छोड़कर भोजन का सामान लाने के लिए स्वयं नगर में चली गई। राजकुमार जमीन पर सिर टिकाकर सो गया। वह सो रहा था कि उसके पेट में रहने वाला सर्प उसके मुख से बाहर निकलकर हवा खाने लगा। 

इसी बीच पास ही की बाँबी में रहनेवाला साँप भी बिल से बाहर निकल आया। उसने पेट में रहने वाले साँप को फटकारते हुए कहा, ‘तू बहुत दुष्ट है, जो इस सुंदर राजकुमार को इतने दिनों से पीड़ित कर रहा है।’ 

पेट में रहने वाले साँप ने कहा, ‘और तू कौन-सा बहुत भला है! अपनी तो देख, तूने अपनी बाँबी में सोने से भरे दो-दो कलश छिपा रखे हैं।’ बाँबीवाले सर्प ने कहा, ‘क्या कोई इस उपाय को नहीं जानता कि राजकुमार को पुरानी राई की काँजी पिलाई जाए तो तू तुरंत मर जाएगा?’ 

पेट में रहनेवाले साँप ने भी उसका भेद खोल दिया, ‘तुम्हारी बाँबी में खौलता तेल या पानी डालकर तुम्हारा वध किया जा सकता है!’

उसी दौरान राजकुमारी लौट आई थी। वह वहीं छिपकर दोनों साँपों की बातें सुन रही थी। जब सांप अपने स्थान पर लौट गए तब राजकुमारी ने दोनों उपायों किये । पहले राजकुमार को पुरानी राई की काँजी पिलाई जिससे राजकुमार के अंदर बैठा सांप मर गया और पेट से निकल गया ।

उसके बाद  बाँबी में खौलता पानी डाल दिया जिससे बाँबी में रहने वाला सांप मर गया । इस तरह राजकुमारी ने उन दोनों साँपों का नाश कर दिया।

पेटवाले साँप के मरते ही राजकुमार स्वस्थ हो गया। फिर बाँबी में गड़े धन को निकालकर वह अपने अपने स्वस्थ-सुंदर पति के साथ सुख से रहने लगी।

इस तरह से उसका सोया हुआ भाग्य जाग गया।

इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि हर रात के बाद सुबह अवश्य होती है।

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฐाเคœा เค”เคฐ เค•ुเคฎ्เคนाเคฐ

                      पंचतंत्र

                  राजा और कुम्हार

क गाँव में एक कुम्हार रहता था। एक दिन वह बहुत नशे में था। ऐसे में वह एक घड़े से उलझकर गिर गया और उसके सिर पर गहरा घाव हो गया। कुछ दिनों के बाद घाव तो भर गया लेकिन उसकी ललाट पर एक बड़ा सा दाग छोड़ गया।

इस घटना के कुछ सालों बाद उस गाँव में अकाल पड़ा। रोजी रोटी की तलाश में वहां के लोगों को वह गाँव छोड़कर किसी दूसरे राज्य में जाना पड़ा। वह कुम्हार भी अन्य लोगों की तरह दूसरे राज्य को चला गया।

कुम्हार बड़ा भाग्यशाली था और उसे राजा के महल में नौकरी मिल गई। जब राजा ने कुम्हार की ललाट पर घाव का निशान देखा तो वह बड़ा प्रभावित हुआ। उसे लगा कि यह आदमी जरूर ही एक बहादुर योद्धा होगा क्योंकि इस तरह के दाग तो युद्ध की निशानी होते हैं

राजा उस कुम्हार की कुछ ज्यादा ही इज्जत करता था। कुछ समय बीतने के बाद कुम्हार के पद में भी तरक्की हुई और वह राजा के दरबार में एक सम्मानित दरबारी बन गया। अपने बढे हुए ओहदे और बढ़ी हुई इज्जत से कुम्हार भी काफी खुश था।

एक दिन पड़ोस के राजा ने उस राज्य पर आक्रमण कर दिया। अब इस राजा ने कुम्हार से कहा, “हमें लगता है कि हमारी सेना का नेतृत्व तुम जैसा वीर पुरुष करे। जाओ और सेनापति का पद सम्भालो। अभी इस राज्य को तुम्हारी सख्त जरूरत है।” ऐसा सुनकर कुम्हार ने बताया कि वह तो एक मामूली कुम्हार है। फिर उसने उस दाग के पीछे की पूरी कहानी बता दी। राजा को अपनी भूल पर शर्मिन्दा होना पड़ा।

इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि किसी के पहनावे को देखकर उसके व्यक्तित्व का अंदाजा नहीं लगाना चाहिए।

Thursday 23 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เค”เคฐเคค เค”เคฐ เคจेเคตเคฒा

                        पंचतंत्र

                  औरत और नेवला

किसी गाँव में एक औरत के एक लड़का हुआ था। संयोग से उसे नेवले का एक बच्चा भी मिला और वह उसे भी पालने लगी। नेवला उस बच्चे के साथ ही खेलता था। लेकिन वह महिला हमेशा इस बात को लेकर आशंकित रहती थी कि नेवला उसके बच्चे को कोई नुकसान न पहुंचा दे। वह अपने बच्चे को कभी अकेला नहीं छोड़ती थी। लेकिन एक दिन किसी काम से उसे कहीं जाना पड़ा और बच्चा घर में अकेला रह गया।

जब वह महिला बाहर थी, तब नेवला उस बच्चे का पास ही बैठा रहा। अचानक एक काला नाग उस बच्चे के नजदीक आया। बच्चे को बचाने के लिए नेवले ने नाग से लड़ाई शुरू कर दी। काफी देर लड़ने के बाद नेवले ने उस नाग को मार दिया। जब वह औरत वापस आई तो उसने नेवले के मुंह को खून से सना देखा। यह देखकर उसे तो जैसे पाला मार गया और उसने सोचा कि नेवले ने उसके बच्चे को मार दिया है। बिजली की तेजी से उसने एक पत्थर उठाया और नेवले को मार दिया। उसके बाद जब वह अपने घर के अंदर गई तो उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसे अपने किए पर पछतावा हो रहा था लेकिन अबतक बहुत देर हो चुकी थी।

सीख :- किसी परिस्थिति में तुरंत प्रतिक्रिया करने की बजाय हमें धीरज से काम लेकर उसके कारण और परिणाम का पता लगाना चाहिए ।

Wednesday 22 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฎूเคฐ्เค– เคœुเคฒाเคนा

                   पंचतंत्र

                मूर्ख जुलाहा

किसी गाँव में एक जुलाहा रहता था। एक दिन जब वह काम कर रहा था तो उसे लगा कि उसके करघे को मरम्मत की जरूरत है। उसे इसके लिए लकड़ी की जरूरत थी, इसलिए लकड़ियाँ काटने जंगल की ओर चला गया। उसने एक पेड़ को चुना और उसकी डाल काटने को बढ़ा। लेकिन तभी वहां पर एक जिन्न प्रकट हो गया।

जिन्न ने कहा, “मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ इस पेड़ पर रहता हूँ। तुमसे अनुरोध है कि इसे मत काटो। बदले में मैं तुम्हे मनचाहा वरदान दूंगा।” ऐसा सुनकर जुलाहे ने कहा, “मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि क्या वर मांगूं। अच्छा होगा कि मैं अपनी पत्नी से पूछकर आता हूँ।”

इसके बाद वह जुलाहा अपने घर लौटा और अपनी पत्नी से जिन्न और वरदान की बात बताई। उसकी पत्नी जरूरत से ज्यादा अकलमन्द थी। उसने जुलाहे से कहा कि वह जिन्न से एक और सिर और दो और हाथ मांग ले। इससे जुलाहा अधिक तेजी से काम कर पाएगा और उनकी आमदनी दोगुनी हो जाएगी।

जुलाहा भागकर जंगल पहुंचा और जिन्न से कहा की उसे एक और सिर और दो और हाथ दे दे। जिन्न ने हवा में अपना हाथ लहराया, कुछ मन्त्र बुदबुदाए और फिर कमाल हो गया। जुलाहे के दो सिर और चार हाथ हो गए। जुलाहा बहुत खुश हुआ। वह सरपट अपने गाँव की और भागा। जब वह गाँव में घुसा तो गाँववालों ने उसे कोई राक्षस समझ लिया। गांववालों ने उसे पत्थर मार-मारकर जान से मार दिया।

इस कहानी से हमें ये शिक्षा मिलती है कि हाथ आए मौके का फायदा उठाने के लिए भी अकल की जरूरत होती है।

Saturday 18 February 2017

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฆंเคคिเคฒ เคธाเคนूเค•ाเคฐ

                    पंचतंत्र

              दंतिल साहूकार

वर्धमान नगर में आभूषणों का व्यापारी दंतिल अपने उत्तम व्यावहार से राजपुरुषों और सामान्य प्रजाजनों में अत्यंत प्रिय था। इस सेठ ने अपनी कन्या के विवाह के अवसर पर राजपरिवार की रानियों और परिजनों को निमंत्रित किया।

राज परिवार के सदस्यों के साथ गोरम्भ नमक सफाई-कर्मचारी भी सेठ के घर जा पहुंचा।  वह अपनी स्थिति को भूलकर अथवा अपने को आमंत्रित अतिथि समझकर शिष्ट वर्ग की पंक्ति में बैठ गया।  सेठ ने यह देखा तो क्रुद्ध होकर उसने गोरम्भ का गला पकड़कर उसे वहां से उठा दिया।

सेठ द्वारा सार्वजानिक रूप से किये गये इस अपमान से गोरम्भ बहुत दुखी हुआ।  वह लहू का घूँट पीकर घर लौट आया और सेठ से प्रतिशोध लेने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगा।  उसके ह्रदय में प्रतिशोध की ज्वाला इतनी अधिक प्रचंड थी कि उसकी रातें करवटें बदलते ही बीतती थीं।  वह सुख की नींद नहीं सो पाता था।

एक दिन महल में झाड़ू लगाते हुए गोरम्भ ने राजा को अर्ध-निद्रित अवस्था में देखा तो उसे सुनाने की इच्छा से बडबडाते हुए वह बोला – यह भी दंतिल सेठ का कितना बड़ा सौभाग्य और साहस है कि वह रानी का आलिंगन-चुम्बन करने लगा है।

राजा ने हड़बड़ाकर शय्या से उठते हुए गोरम्भ को पुकारा और उसे डांटते हुए पूछा – यह तुम क्या अंट-शंट बक रहे हो?  गोरम्भ ने अभिनय करते हुए राजा की उत्सुकता को जगाने की इच्छा से कहा – महाराज! मैंने तो कुछ नहीं कहा, आपको भ्रम लगा है।

राजा ने सोचा कि गोरम्भ का रनिवास में बेरोकटोक प्रवेश है और दंतिल सेठ को भी हमने प्रवेश की अनुमति दे रखी है।  संभव है कि इसने दंतिल को रानी का आलिंगन करते हुए देखा है और अब भय के कारण सत्य को छिपा रहा है।  वस्तुतः जीवन का सत्य ही स्वप्न अथवा प्रलाप बनकर बाहर आता है।

राजा ने सोचा,  संभव है कि रानी भी दंतिल सेठ में अनुरक्त हो।  यह सोचकर राजा एक ओर तो रानी से खिंचा रहने लगा और दूसरी ओर उसने महल में दंतिल सेठ के प्रवेश पर रोक लगा दी।

राजा के बदले तेवर देखकर दंतिल चिंतित हो उठा और सोचने लगा कि मुझसे जाने-अनजाने क्या अपराध हो गया है जिससे कि राजा मुझसे सहसा रूष्ट हो गया है।  इसी सोच-विचार में उसे गोरम्भ के प्रति किये अपने व्यव्हार का स्मरण हो आया।  उसने सोचा कि आखिर वह राजपुरुष था, मुझे उसका अपमान नहीं करना चाहिये था।  लगता है यह आग उसी की लगाई हुई है।

दंतिल ने रात पड़ते ही गोरम्भ को अपने घर पर बुलाकर अपने अपराध के लिये न केवल खेद प्रकट किया अपितु धोती, दुपट्टे आदि की भेंट से उसे सम्मानित भी किया।  गोरम्भ ने प्रसन्न होकर दंतिल को पुनः पूर्ववत राजा का कृपापात्र बनाने का आश्वाशन दिया।

दूसरे दिन गोरम्भ ने महल में झाड़ू लगाते हुए राजा को अर्ध निद्रित अवस्था में देखा तो वह बडबडाते हुए बोला – हमारे महाराज को मलत्याग करते समय ककड़ी खाने की कैसी बुरी आदत है?  राजा ने सहसा जाग कर गोरम्भ को फटकारते हुए कहा – दुष्ट! यह कैसी बकवास कर रहे हो?  तुम्हें सेवक समझकर मैं दण्डित नहीं कर रहा, परन्तु क्या तुमने कभी हमें मलत्याग करते समय कुछ खाते हुए देखा है?  गोरम्भ भयभीत होने का अभिनय करते हुआ बड़े ही भोलेपन से बोला – महाराज!  क्या मैंने कुछ कहा है जिससे की आप प्रातः बेला में मुझसे रुष्ट होकर कुछ पूछ रहे हैं?

राजा ने गोरम्भ की निर्भीक वाणी सुनकर सोचा की लगता है इसकी अंट-शंट बकने की आदत है।  मैंने तो जीवन में मलत्याग करते समय कभी ककड़ी नहीं खायी।  लगता है कि रानी से दंतिल सेठ के आलिंगन की इसकी बडबडाहट भी सर्वथा निराधार है।  मैंने उस निरपराध को अपनी कृपा से वंचित करके उसके प्रति अन्याय ही किया है।  वस्तुतः उस जैसा परीक्षित साधु पुरुष राज-परिवार की स्त्रियों पर कुदृष्टि डाल ही नहीं सकता।  यह सोचकर राजा ने दंतिल को बुला कर उसे सम्मानित किया और रनिवास में उसके प्रवेश पर लगे प्रतिबन्ध को हटा लेने की सूचना देकर उसे हर्षित बनाया।

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคฒोเคนे เค•ा เคคเคฐाเคœू

                      पंचतंत्र

                 लोहे का तराजू

किसी नगर में जीर्णधन नाम का एक वैश्य रहता था| कुछ ऐसा हुआ कि उसका सारा धन नष्ट हो गया और वह सर्वथा निर्धन हो गया| इससे जहां उसको कष्ट होता था वहां उसको ग्लानि भी होने लगी थी|

कभी वह धन धन्य से जब सम्पन्न था तो सिर उठाकर चलता था| आज उसी नगर में उसको सिर नीचा करके चलन पड़ रहा था| अत: उसने विदेश जाने का निर्णय किया| उसके पास उसके पुरखों के समय से चली आई हुई लोहे की ऐसी तराजू थी कि वैसी अन्यत्र कोई और तराजू थी ही नहीं| उसने एक सेठ के यहां उस तराजू को बंधक रखा और धन कमाने के लिए विदेश चला गया| 

विदेश जाने पर उस वैश्य का भाग्य चमका| उसने देश-विदेश का खूब भ्रमण किया और धन भी कमाया| बहुत सा धन कमाकर वह अपने नगर वापस आ गया| वह सीधे महाजन के पास ही गया और बोला, 'लाला! मेरी वह बन्धक रखी हुई तराजू दे दो और अपने पैसे ले लो|

महाजन ने बहुत दुःख के साथ कहा, 'अरे भाई, 'तुम्हारी तराजू तो अब रही ही नहीं| उसको तो चूहे खा गए हैं|'

वैश्य को क्रोध तो आया किन्तु उस समय उसने प्रकट नहीं किया| वह बोला, 'लाला जी! इसमें आपका क्या दोष? जब चूहों ने ही खा लिया तो आप कर ही क्या सकते हैं? यह संसार कुछ ऐसा ही है| यहां कोई भी वस्तु टिक नहीं पाती| अच्छा अब मैं अभी स्नान के लिए जा रहा हूँ| कृपा करके आप अपने सुपुत्र को मेरे साथ कर दीजिए, जिससे कि वह स्नान ही सामग्री ले जाएगा और वहां देखता भी रहेगा|'

लाल को वैश्य से डर लग रहा था| इसलिए उसने अपने पुत्र धनदेव को बुलाकर उससे कहा, 'बेटे! ये तुम्हारे चाचा स्नान के लिए नदी-तट पर जा रहे हैं, तुम इनके लिए स्नान की सामग्री लेकर उनके साथ चले जाओ|'

पिता की आज्ञा मानकर धनदेव उस वैश्य के साथ चल दिया| वहां पहुँचकर वणिकपुत्र ने स्नान किया और फिर समीप ही एक गुफा के अन्दर धनदेव को बन्द करके उसका द्वार बाहर से किसी बहुत बड़ी शिला से बन्द कर दिया| इस प्रकार वह अकेला ही महाजन के पास लौटा|

उसे अकेला आते देख महाजन ने पूछा, 'मेरा पुत्र कहाँ है?'

'उसको तो नदी के किनारे से बाज उठाकर ले गया है|

'क्या बकते हो? बाज भी कहीं लड़के को उठा सकता है? मेरे लड़के को लाकर दो नहीं तो न्यायालय में जाऊंगा|'

'यदि लोहे की तराजू को चूहे खा सकते हैं तो लड़के को भी बाज उठाकर ले जा सकता है| यदि अपने लड़के को वापस चाहते हो तो मेरी तराजू मुझे लौटा दो|'

महाजन को अपना पुत्र चाहिए था और वणिक को अपना लोहे का तराजू| दोनों न्यायलय पहुंचे| प्रथम महाजन ने ही अभियोग लगाते हुए कहा, 'महोदय! इस ने मेरा पुत्र चुरा लिया है|

देखते-देखते नदी किनारे से एक बाज उठाकर ले गया है| अब मैं कहां से लाकर दूं?

न्यायधीश बोले, 'हम इस बात पर विश्वास नही कर सकते कि इसके पुत्र को बाज उठाकर ले गया है| यह असम्भव है|'

'श्रीमान! मेरी प्रार्थना पर ध्यान दिया जाए| जहां पर सहस्त्र पल की लोहे की तुला को चूहे खा सकते हैं क्या वहां महाजन के पुत्र को बाज उठाकर नहीं ले जा सकते?'

'यह तुम क्या कह रहे हो?'

तब वाणिकपुत्र ने आदि से अन्त तक सारे विवरण न्यायधीशों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया| न्यायधीशों ने महाजन को वणिक की तुला वापस करने और वाणिक को महाजन का पुत्र वापस करने का आदेश दिया|

यह कथा सुनने के बाद करटक ने कहा, 'जहां एक प्रकार की अर्पूव घटना घट सकती है| तुमने संजीवक की खुशी से क्षुब्ध होकर यह प्रपंच किया है| अपने स्वभाव के कारण तुमने संजीवक की निन्दा की|

उसकी निन्दा करते हुए तुमने राजा का हित करते हुए भी अहित किया है| कहा भी गया हे कि पंडित व्यक्ति यदि शत्रु हो तो भी अच्छा ही है| किन्तु अपना हित करने वाला व्यक्ति यदि मुर्ख हो तो ठीक नहीं होता| चोर होते हुए भी पंडित ने चार ब्राह्मणों की रक्षा की थी|' 

เคชंเคšเคคंเคค्เคฐ : เคงเคฐ्เคฎเคฌुเคฆ्เคงि เค”เคฐ เคชाเคชเคฌुเคฆ्เคงि

                   पंचतंत्र

        धर्मबुद्धि और पापबुद्धि

किसी नगर में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे| एक बार पापबुद्धि ने विचार किया कि वह तो मुर्ख भी है ओर दरिद्र भी| क्यों न किसी दिन धर्मबुद्धि को साथ लेकर विदेश जाया जाए| इसके प्रभाव से धान कमाकर फिर किसी दिन इसको भी ठगकर सारा धन हड़प कर लिया जाए|

यह विचारक वह अगले ही दिन धर्मबुद्धि के पास जाकर कहने लगा, मित्र! वृद्धावस्था में तुम जब अपने नाती-पोतों के पास बैठकर बातें करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? तो, अपनी कौन सी कारस्तानी का बखान करोगे? न तुम कभी विदेश गए और न वहां की वस्तुएं देखी और देखने योग्य स्थान ही देखें| कहते हैं कि इस पृथ्वी पर रहे जिसने विदेश-भ्रमण नहीं किया, अनेक देशों की जानकर प्राप्त नहीं की, उसका तो जन्म ही व्यर्थ है|' 

धर्मबुद्धि को पापबुद्धि का परामर्धा भा गया| उसने भी अपने गुरुजनों और परिजनों से एक दिन आज्ञा ली ओर वह पापबुद्धि के साथ विदेश-भ्रमण के लिए निकल पड़ा| इस प्रकार विदेश जाकर दोनों ने खूब धन कमाया| फिर वे अपने घर की ओर वापस चल पड़े| वापस लौटते हुए उन्हें वह दूरी खटक रही थी|

जब वे अपने नगर के निकट आ गए तो पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, मित्र! मैं समझता हूं कि इस सम्पूर्ण धन को लेकर घर जाना ठीक नहीं रहेगा| इतना धन देखकर सभी हमसे मांगने लग जाएंगे| अच्छा यही होगा कि अधिक धन यहीं कहीं जंगल में छिपाकर रख दिया जाए और थोड़ा सा लेकर घर जाया जाए| जब कभी आवश्यकता हुई तो उसके अनुसार धन यहां से निकालकर ले जाएंगे|

धर्मबुद्धि बोला, 'यदि तुम यह ठीक समझते हो तो यही करो|'

एक स्थान पर धन गाड़ दिया गया| फिर कुछ धन लेकर वे दोनों अपने-अपने घर जा पहुंचे अपने घर जाकर दोनों मित्रों के दिन सुख से कटने लगे| पापबुद्धि के मन में पाप था| एक दिन अवसर पाकर वह अकेला वन में आया और सारा धन निकालकर ले गया| गड्डे को उसने उसी प्रकार ढक दिया|

एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि के पास जाकर कहा, 'मित्र! मेरा धन तो समाप्त हो गया है अत: यदि तुम कहो तो उस स्थान पर चलकर कुछ और धन निकालकर ले आएं?'

धर्मबुद्धि चलने को तैयार हो गया|

वहां जाकर जब स्थान को खोदा तो जिस पात्र में धन रखा था वह खाली पाया| पापबुद्धि ने वहीं पर अपना सर पीटना आरम्भ कर दिया| उसने धर्मबुद्धि पर आरोप लगाया कि उसने हि वह धन चुरा लिया है, नहीं तो उस स्थान पर उस धन के बारे में उसके अतिरिक्त और कौन जाता था| उसने कहा कि वह जो धन लेकर गया है| उसका आधा भाग उसको दे दे| अन्यथा वह राजा के पास जाकर निवेदन करेगा|

धर्मबुद्धि को यह सुनकर क्रोध आ गया| उसने कहा 'मेरा नाम धर्मबुद्धि है, मेरे सम्मुख इस प्रकार की बात कभी नही कहना| मैं इस प्रकार की चोरी करना पाप समझता हूं|'

किन्तु विवाद बढ़ गया| दोनों व्यक्ति न्यायलय में चले गए| वहां भी दोनों परस्पर आरोप-प्रत्योरोप करके एक-दूसरे को दोषी सिद्ध करने लगे| न्यायधीशों ने जब सत्य जानने के लिये दिव्य परीक्षा का निर्णय दिया तो पापबुद्धि बोल उठा, 'यह उचित न्याय नहीं है| सर्वप्रथम लेख बद्ध प्रमाणों को देखना चाहिए, उसके अभाव में साक्षी ली जाती है और जब साक्षी भी न मिले तो फिर दिव्य परीक्षा ही की जाती है| मेरे इस विवाद में अभी वृक्ष देवता साक्षी है| वे इसका निर्णय कर देंगे|'

न्यायधीशों ने कहा, 'ठीक है, ऐसा ही कर लेते हैं|

इस प्रकार अगले दिन प्रात:काल उस वृक्ष को समीप जाने का निश्चय कर लिया गया| उन दोनों को भी साथ चलने के लिए कहा गया|

न्यायलय से लौटकर पापबुद्धि घर आया और उसने अपने पिता से कहा, 'पिताजी! मैंने धर्मबुद्धि का सारा धन चुरा लिया है| अब मामला न्यायलय में चला गया है| यदि आप मेरी सहायता करें तो मैं बच सकता हूं, अन्यथा हमारे प्राण जाने का भी भय है|'

'जैसा पुत्र वैसा ही पिता|' उसने कहा, 'हां हां बताओ, किस प्रकार वह धन हथियाया जा सकता है?

पापबुद्धि ने अपनी योजना अपने पिता को बता दी| उसके अनुसार उसका पिता वृक्ष के एक कोटर में जाकर बैठ गया| दूसरे दिन प्रात:काल यथासमय पापबुद्धि न्यायधीशों तथा धर्मबुद्धि को लेकर उस स्थान पर गया जहां धन गाड़ कर रखा गया था| वहां पहुंचकर पापबुद्धि ने घोषणा की, समस्त देवगण मनुष्य के कर्मों के साक्षी हैं| 'हे भगवती वनदेवी| हम दोनों में से जो चोर हो आप उनका नाम बता दीजिए|'

कोटरे में छिपे पापबुद्धि के पिता ने यह सुनकर कहा, 'सज्जनों! आप ध्यानपूर्वक सुनिए| उस धन को धर्मबुद्धि ने ही चुराया|'

यह सुनकर सबको आश्चर्य हुआ| तब धर्मबुद्धि के इस अपराध के लिए इसके दण्ड का विधान देखा जाने लगा| अवसर पाकर धर्मबुद्धि ने इधर उधर से घास-फूस एकत्रित की, कुछ लकड़ियां भी चुनी और वह सब कोटरे में डालकर आग लगा दी|

जब वह जलने लगा तो कुछ समय तक तो पापबुद्धि का पिता यह सब सहन करता रहा| किन्तु जब असहाय हो गया तो वह अपना अधजला शरीर और फूटी आंख लेकर उस कोटरे से बाहर निकल आया| उसे देखकर न्यायधीशों ने कहा, 'आप कौन हैं ओर आपकी यह दशा किस प्रकार हुई?'

पापबुद्धि का पिता अब किसी प्रकार भी अपनी बात को छिपाकर रखने में असमर्थ था| उसने सारा वृतान्त आद्योपान्त यथावत् सुना दिया| न्यायधीशों ने जो दण्ड-व्यवस्था धर्मबुद्धि के लिए निश्चय की थी| वह पापबुद्धि पर लागू कर उसको उसी वृक्ष पर लटका दिया|

सीख :- बुरे कर्म बुद्धि भी हर लेते हैं ।