Monday 11 September 2017

เคต्เคฏเค•्เคคि เคชเคฐिเคšเคฏ : เคธ्เคตाเคฎी เคตिเคตेเค•ाเคจंเคฆ

Story Time 😊

               Story of  a person

     1.   विवेकानंद के अनुसार कोई भी कार्य असंभव नहीं

एक समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका में थे. भ्रमण करते हुए अचानक उनकी नज़र एक पुल पर पड़ी जहाँ कुछ लड़के खड़े थे और नदी में तैरते हुए अंडे के छिलके पर निशाना साध रहे थे लेकिन एक भी निशाना उन लड़को से सही नही लग रहा था. बहुत देर यह सब देखने के बाद स्वामी जी ने एक लड़के से बंदूक ली और खुद निशाना लगाने लगे, पहले निशाने में ही स्वामी जी सफल हुए और सभी निशाने में सफल हुए.

यह सब देख सारे लड़के आश्चर्यचकित हो गये और उनसे पूछा – स्वामी जी, आपने यह सब इतनी सहजता से कैसे किया? आपके सारे निशाने इतने सटीक कैसे लगे? स्वामी विवेकानंद जी ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया – असंभव को संभव करना कोई बड़ी बात नही क्योकि असंभव जैसा कुछ होता ही नही. तुम जो भी करो अपना सर्वस्व उस कार्य के प्रति लगा दो. अगर तुम निशाना सटीक लगाना चाहते हो तो अपना पूरा ध्यान उसी कार्य पे केंद्रित करो जिसे तुमने अपना लक्ष्य बनाया है फिर तुम कभी भी अपने लक्ष्य से नही भटकोगे.

अगर तुम अपनी पढ़ाई कर रहे हो तो उस समय में सिर्फ़ पढ़ाई के बारे में ही सोचो.

                     2.  माँ से बड़ा न कोय

एक बार स्वामी विवेकानंद जी अपने आश्रम में अपने शिष्यों को संबोंधन कर रहे थे तभी एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया – माँ कि महिमा पूरे संसार में किस कारण से गाई जाती है?

स्वामी जी हँसे और उस व्यक्ति से बोले – जाओ कही से पाँच सेर का पत्थर ले आओ. आज्ञानुसार वह व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने कहा अब इस पत्थर को कपड़े में लपेटकर अपने पेट से बाँध लो और चार पहर बाद मेरे पास आना फिर में तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा.

स्वामी विवेकानंद के कहेनुसार वह व्यक्ति पत्थर को अपने पेट से बाँध कर चला गया और अपने दैनिक कार्य को करने लगा. किंतु हर क्षण उसे परेशानी और कमजोरी का अहसास होता रहा, क्योकि पेट पर बंधे हुए पत्थर से वह अपने कार्य में सहज नही था. दिन ढलते-ढलते उसके पेट में दर्द भी होने लगा, अब उस व्यक्ति के लिए पत्थर का बोझ संभालना असंभव था वह चल फिर भी नही पा रहा था. अतः वह थका मांदा, दिये गये समय से पहले ही स्वामी जी के पास पहुँच गया और बोला मैं इस पत्थर का भार अब ओर सहन नही कर सकता. एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मैं अपने आप को इतनी कड़ी सज़ा अब और नही दे सकता.

स्वामी विवेकानंद हँसते हुये बोले – तुम कुछ घंटो के लिए भी अपने पेट पर इस पत्थर का बोझ नही उठा पाएं तो ज़रा सोचो एक माँ अपने गर्भ में पूरे नौ माह एक शिशु का भार ढोंती है और गृहस्ती का पूरा काम बिना शिकायत के करती है. तो अब तुम ही बताओ पूरे संसार में माँ से ज़्यादा धैर्यवान और सहनशील कोई हो सकता है? इसलिए संसार में माँ का स्थान सर्वोपरि है. माँ से बढ़कर इस संसार में कोई नही है.

3. सन्यासी से मिली स्वामी विवेकानंद को सीख

एक बार स्वामी विवेकानंद जी बनारस में दुर्गा माँ के दर्शन करके मंदिर से बाहर निकल रहे थे कि तभी वहाँ के असंख्य बंदरों ने स्वामी जी को घेर लिया. सारे बंदर प्रसाद लेने की इच्छा से स्वामी जी के करीब आने लगे और डराने लगे. इतने सारे बंदरों को देखकर स्वामी जी भी बहुत भयभीत हो गये और स्वंय को बचाने के लिए वहाँ से दौड़ने लगे. लेकिन वो बंदर प्रसाद लिए बिना कहा पीछा छोड़ने वाले थे, स्वामी जी भी पीछे-पीछे दौड़ाने लगे उन बंदरों को.

पास खड़े एक वृद्ध सन्यासी यह सब देख रहे थे. उन्होने स्वामी जी को रुकने को कहाँ और बोले डरो मत, जो समस्या तुम्हारे सामने है उसका सामना करो और देखो क्या होता है. वृद्ध सन्यासी की बात सुन स्वामी जी तुरंत पलटें और बंदरों की तरफ बढ़ने लगे. उनके ऐसा करते ही सारे बंदर भाग खड़े हुए, ये देख स्वामी जी के आश्चर्य का ठिकाना नही रहा. उन्होने वृद्ध सन्यासी को इस सलाह के लिए कोटि-कोटि धन्यवाद किया.

इस घटना से स्वामी जी को एक गंभीर सीख मिली और कई वर्षो बाद उन्होने एक सम्मेलन समारोह में संबोधन करते हुए इसका जिक्र भी किया और कहाँ – यदि तुम कभी किसी चीज से भयभीत हो, तो उससे भागो मत, पलटो और उस समस्या का सामना करो.

वाकई, स्वामी विवेकानंद की यह शिक्षा आज भी हमारे सामने ढ़ाल के रूप में खड़ी है. अगर हम भी अपने जीवन में आई सभी समस्याओं का सामना डट कर करें और उससे भागे नही तो बहुत सी समस्याओं का समाधान हम अपने स्तर पर ही कर सकते है.

                     4.  देने का सुख

यह उन दिनों की बात है जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका में एक महिला के घर शरणार्थी थे. रोज की तरह उस दिन भी स्वामी जी अपने भाषण समारोह से थके हुए अपने निवास स्थान पर लौटे. वे अपने सभी कार्य खुद करते थे. उस दिन भी वे अपने लिए भोजन बना रहे थे कि कुछ बालक उनके समीप आ कर खड़े हो गये. वैसे तो स्वामी जी के पास बच्चों का आना-जाना लगा रहता था. लेकिन उस दिन वें सभी बच्चें भूखे थे. स्वामी जी उन बालकों के भूखे होने की बात को भाँप गये थे, बस फिर क्या – स्वामी जी ने जितनी भी रोटियाँ बनाई थी एक-एक कर के सभी बच्चों में बाँट दी.

महिला को बड़ा आश्चर्य हुआ यह सब देख कर, उससे रहा नही गया आखिर उसने स्वामी जी से पूछ ही लिया – आपने सारी रोटियाँ उन भूखे बच्चों में बाँट दी, अब आप अपनी भूख कैसे मिटाएँगे?

स्वामी जी के चेहरे पर मंद सी मुस्कान दौड़ आई. उन्होनें खुश हो कर कहाँ – ” माँ, रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने की वस्तु है, इस पेट में नही तो उस पेट में ही सही.” क्योकि देने का सुख लेने के सुख से सदैव बड़ा होता है.

                  5. मूर्ती पूजा का महत्व

एक समय की बात है जब हमारे देश में राजाओं का शासन होता था. स्वामी विवेकानंद जी का जीवन भी उन्हीं राजाओं के शासन काल में ही गुजरा था. एक बार एक राजा ने स्वामी जी को अपने राज्य में निमंत्रण दिया. स्वामी जी ने निमंत्रण को स्वीकार किया और राजा के राज्य में चले आये.

स्वामी विवेकानंद के आदर सत्कार के बाद राजा ने मंत्रणा की इच्छा जताई. बातों-बातों में राजा ने स्वामी जी से पूछा – ”तुम हिंदू लोग मूर्ति पूजन क्यों करते हो?” धातु, मिट्टी और पत्थर से बनी यह मूर्तियां तो बेजान है. यह तो केवल एक वस्तु है. मैं यह सब नही मानता.”  उस राजा के सिंहासन के पीछे एक तस्वीर थी जिस पर विवेकानंद जी कि नज़र गई. स्वामी जी ने राजा से पूछा – यह तस्वीर किसकी है?

राजा ने कहाँ – ”मेरे पिताजी की.” स्वामी जी बोले – ”जरा उस तस्वीर को अपने हाथो में लिजिये, राजा तस्वीर को हाथो में लेता है, तभी स्वामी जी बोले अब आप इस तस्वीर पर थुकिये.” राजा ने कहाँ – ”यह आप क्या बोल रहे है?”

स्वामी जी ने अपनी बात फिर से दोहराई. तभी राजा क्रोध से बोलता है – ”स्वामी जी आप होश में तो है, मैं यह काम कदापि नही कर सकता.” स्वामी जी बोले – ”क्यो? ये तस्वीर तो बस एक कागज़ का टुकड़ा है जिसमे कुछ रंग भरे है.” इसमें ना तो जान है, ना स्वर, ना तो ये सुन और बोल सकती है. यहाँ तक कि इस तस्वीर में हड्डिया और प्राण भी नही है फिर भी आप इस तस्वीर पर थूक नही सकते. क्योकि, राजन आप इस तस्वीर में अपने पिता का स्वरूप देखते है. इस तस्वीर का अपमान करना आप अपने पिता का अपमान करना समझते है.

ठीक उसी तरह , ”हम हिंदू भी धातु, पत्थर और मिट्टी से बनी मूर्तियों में अपने भगवान का स्वरूप मान कर पूजा करते है. भगवान तो सब जगह है, अगर मन में सच्ची आस्था और विश्वास हो तो मूर्तियों में भी ईश्वर नज़र आते है.” हम हिंदू मूर्तियों को ईश्वर का आधार मान कर अपने मन को एकाग्रचित कर मूर्ति पूजा करते है क्योकि हम यह मानते है ईश्वर तो ”कण-कण में है.”

            6.    विवेकानंद ने सुझाई राह

एक बार स्वामी विवेकानंद के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था। वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि महाराज मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ, काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया। भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा-लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया, धनवान नहीं हो पाया। स्वामीजी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए। उन दिनों स्वामीजी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था, उन्होंने उस व्यक्ति से कहा– तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा।

आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा। काफी देर तक अच्छी-खासी सैर कराकर जब वो व्यक्ति वापस स्वामीजी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था, जबकि कुत्ता हाँफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था।

स्वामी विवेकानन्द के कहने पर वो आदमी जो अपनी समस्या लेकर आया था कुत्ते को सैर कराकर ले आता है। पर लंबे सैर के बावजूद उस आदमी पर जरा भी शिकन नहीं हुई, जबकि कुत्ता बुरी तरह से हांफ गया। इस दृश्य को देखकर स्वामी विवेकानंद ने व्यक्ति से कहा– ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी साफ-सुथरे और बिना थके दिख रहे हो। तो व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा-साधा अपने रास्ते पे चल रहा था लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था। हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है।

स्वामी विवेकानंद ने मुस्कुरा कर कहा- यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब है, तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आसपास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है। लेकिन तुम मंजिल पर जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो।

       7.   विवेकानंद को दिया प्रणय प्रस्ताव

एक दिन विवेकानंद जी अपना उद्बोधन देकर मंच से उतरे तो उन्हें भीड़ ने घेर लिया। उसी दौरान उक्त विदेशी महिला स्वामी विवेकानंद के समीप आकर बोली कि मैं आपसे शादी करना चाहती हूं।

विवेकानंद बोले क्यों? मुझसे क्यों? क्या आप जानती नहीं कि मैं एक सन्यासी हूं? औरत बोली, मैं आपके जैसा ही गौरवशाली, सुशील और तेजोमयी पुत्र चाहती हूं और वो वह तब ही संभव होगा।
जब आप मुझसे विवाह करेंगे। विवेकानंद बोले हमारी शादी तो संभव नहीं है, परन्तु हां एक उपाय है। औरत बोली- क्या? विवेकानंद बोले- आज से मैं ही आपका पुत्र बन जाता हूं, और आज से आप मेरी मां बन जाओ।

आपको मेरे रूप में मेरे जैसा बेटा मिल जाएगा और मुझे मां। विवेकानंदजी की बातें सुनकर वह उनके चरणों में गिर गई और बोली कि आप साक्षात् ईश्वर के रूप हैं।

इसे कहते हैं पुरुष और ये होता है पुरुषार्थ ।

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