Wednesday 27 September 2017

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                    पौराणिक कथाएँ

        परशुराम क्यों बने क्षत्रियों के दुश्मन

सहस्त्रार्जुन एक चन्द्रवंशी राजा था जिसके पूर्वज थे महिष्मन्त। महिष्मन्त ने ही नर्मदा के किनारे महिष्मती नामक नगर बसाया था। इन्हीं के कुल में आगे चलकर दुर्दुम के उपरान्त कनक के चार पुत्रों में सबसे बड़े कृतवीर्य ने महिष्मती के सिंहासन को सम्हाला। भार्गव वंशी ब्राह्मण इनके राज पुरोहित थे। भार्गव प्रमुख जमदग्नि ॠषि (परशुराम के पिता) से कृतवीर्य के मधुर सम्बन्ध थे। कृतवीर्य के पुत्र का नाम भी अर्जुन था। कृतवीर्य का पुत्र होने के कारण ही उन्हें कार्त्तवीर्यार्जुन भी कहा जाता है। कार्त्तवीर्यार्जुन ने अपनी अराधना से भगवान दत्तात्रेय को प्रसन्न किया था। भगवान दत्तात्रेय ने युद्ध के समय कार्त्तवीर्याजुन को हजार हाथों का बल प्राप्त करने का वरदान दिया था, जिसके कारण उन्हें सहस्त्रार्जुन या सहस्रबाहु कहा जाने लगा। सहस्त्रार्जुन के पराक्रम से रावण भी घबराता था।

एक बार वो अपनी सैनिकों के साथ कहीं जा रहा था रास्ते में आश्रम देखा और उसने घमण्ड और अहंकार में बिना कारण न जाने क्युँ आश्रम को पानी से भर दिया. उसी समय एक बाहर से एक मुनि आये और उन्होने देखा सहस्त्रबाहू अपनी शक्ति का प्रयोग करके आश्रम में पानी भर दिया तो उन्होंने पूछा ये क्या कर रहे हो और क्युं कर रहे हो देखते नहीं ये मेरा आश्रम है. सहस्त्रबाहू बडी धृष्ठता के साथ ठहाके लगा कर हँसने लगा उसे पता भी नहीं था कि ये महर्षि वशिष्ठ हैं. महर्षि वशिष्ठ ने सहस्त्रबाहु अर्जुन को उसकी हरकत पर डपट दिया, तो वो अभिमान मे बोला आप दुबले पतले ब्राह्मण हो, नहीं तो मैं इस वक्त आपको दंड देता कि मुझसे इस तरह बात करने का नतीजा क्या हो सकता है. इस अर्जुन को दत्तात्रेय भगवान से वरदान प्राप्त था कि युद्द करते समय उसके एक हजार हाथ हो जाएंगे इसलिये उसका नाम सहस्त्रबाहु भी हो गया, उसकी इस मूर्खता पर महर्षी ने उसे कहा चिंता मत कर तुम और तुम्हारे जैसे घमण्डी लोग जो ब्राह्मणों को बाहुबल में कमजोर मानते हैं और उपहास या अपमान करते हैं उन सबको शीघ्र ऐसा ब्राह्मण मिलेगा जो अपने बाहुबल से ही तुम सब का अंत करेगा.  परशुराम वही बाहुबली ब्राह्मण थे ।

परशुराम महर्षि जमदग्नि और रेणुका के सबसे छोटे पुत्र थे । एक  दिन उनके पिता जमदग्नि ध्यान मे बैठे थे, सहस्त्रबाहु अर्जुन ऊधर से अपनी सेना लेकर जा रहा था और फिर महर्षि के आश्रम में आया, महर्षि ने अर्जुन का सम्मान किया. अर्जुन ने महर्षि के आश्रम में दिव्य गौ कामधेनु को देखा तो उसने मुनि से कहा आप इस कामधेनु को मुझे दे दिजिये. इस पर मुनि ने असहमति जताई और कहा कि उन्हें कुछ काल तक ही इस गौ की सेवा का अवसर दिया गया है और यह गौ सप्तऋषियों की है, लेकिन अर्जुन बल पूर्वक कामधेनु को ले गया. ईधर परशुराम आये और उन्हें बात पता चली तो वो अर्जुन के राजमहल की ओर दौडे और सहस्त्रबाहू अर्जुन को गाय वापस  करने के लिये कहा, लेकिन अभिमान में भरा राजा ने कहा गौ वापस नहीं दुंगा,और तुम कौन हो वापस जाओ. मैं राजा हूँ और राजा का प्रजा की प्रत्येक वस्तु पर अधिकार है इसलिये वापस जाओ नहीं तो बंदी बना कर कारागार में बंद कर दुंगा और सैनिकों से कहा बाहर का रास्ता दिखाओ इसे. इस बात पर परशुराम जी ने क्रोध ने क्षण भर में ही उसके सैनिकों को काट-काट कर समाप्त कर डाला ।

सहस्त्रबाहु क्रोध से अपने एक हजार हाथ के साथ खडा हुआ और भीषण युद्ध छिड गया महल के बाहर एक तरफ परशुराम अकेले और दुसरी तरफ सहस्त्रबाहु उसके दस हजार पुत्र और हजारों की संख्या में सैनिक थे. जिसे भगवान दत्तात्रेय का आशिर्वाद प्राप्त था कि कोई क्षत्रिय राजा पृथ्वी में उसे ना हरा सकता है और ना उसे प्राक्रम में पीछे छोड सकता है आज वो अपने कई अस्त्र-शस्त्रों के होते अपने अभिमान और अहंकार के चलते परशुराम जी के सामने टिक न सका और परशुराम जी ने उसके महल के बाहर ही उसके एक हजार हाथ काट डाले और उसका अंत कर दिया. उसके दस हजार पुत्रों में से कुछ ही बचे अन्य सब मारे गये. परशुराम अपनी गाय कामधेनु को वापस ले आये और पिताजी को दे दी. सब समाचार सुनाया. महर्षि जमदग्नि ने कहा कि पुत्र तुमने एक राजा की हत्या करके ठीक नहीं किया, इस पर परशुराम जी ने कहा  कि पिताजी उसे मारना मैं भी नहीं चाहता था किंतु शुरुवाद उसकी ओर से हुई और मुझे बंदी बनाने का आदेश उसने ही दिया था और एक मुनि की गाय को जबरन छिन लेना एक राजा का अधर्म है. सहस्त्रबाहु धर्म पारायण भी नहीं रहा था, वो अभिमानी और अहंकारी हो चुका था.

सहस्त्रार्जुन के पुत्रों ने प्रतिशोध स्वरूप परशुराम की अनुपस्थिति में उनके ध्यानस्थ पिता जमदग्नि की हत्या कर दी। रेणुका पति की चिताग्नि में प्रविष्ट हो सती हो गयीं। इस काण्ड से कुपित परशुराम ने पूरे वेग से महिष्मती नगरी पर आक्रमण कर दिया और उस पर अपना अधिकार कर लिया। इसके बाद उन्होंने एक के बाद एक पूरे इक्कीस बार इस पृथ्वी से क्षत्रियों का विनाश किया। यही नहीं उन्होंने हैहय वंशी क्षत्रियों के रुधिर से स्थलत पंचक क्षेत्र के पाँच सरोवर भर दिये और पिता का श्राद्ध सहस्त्रार्जुन के पुत्रों के रक्त से किया। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोका।

इसके पश्चात उन्होंने अश्वमेघ महायज्ञ किया और सप्तद्वीप युक्त पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान कर दी। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने देवराज इन्द्र के समक्ष अपने शस्त्र त्याग दिये और सागर द्वारा उच्छिष्ट भूभाग महेन्द्र पर्वत पर आश्रम बनाकर रहने लगे।

माना जाता है कि परशुराम ने 21 बार हैहयवंशी क्षत्रियों को समूल नष्ट किया था। क्षत्रियों का एक वर्ग है जिसे हैहयवंशी समाज कहा जाता है यह समाज आज भी है। इसी समाज में एक राजा हुए थे सहस्त्रार्जुन। परशुराम ने इसी राजा और इनके पुत्र और पौत्रों का वध किया था और उन्हें इसके लिए 21 बार युद्ध करना पड़ा था।

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