Monday 17 July 2017

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                    पौराणिक कथाएँ

                 एकलव्य की कहानी

महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला हुआ एक राज्य श्रृंगवेरपुर था। व्यात्राज हरिण्यधनु (Vyatraj Harinyadhanu) उस आदिवासी इलाके के राजा व एक महान योद्धा थे। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी।

निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा व उनकी प्रजा सुखी और सम्पन्न थी। निषादराज हिरण्यधनु की रानी सुलेखा ने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। बचपन में वह “अभय” के नाम से जाना जाता था। बचपन में जब “अभय” शिक्षा के लिए अपने कुल के गुरुकुल में गया तो अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक को “एकलव्य” नाम से संबोधित किया।

सारी शिक्षाएँ प्राप्त कर एकलव्य युवा हो गया तब उसका विवाह हिरण्यधनु के एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से हुआ। एकलव्य को अपनी धनुर्विद्या से संतुष्टि न थी इस कारन धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लीये उसे उस समय धनुर्विद्या में दक्ष गुरू द्रोण के पास जाने का फैसला किया।

एकलव्य के पिता जानते थे कि द्रोणाचार्य केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते हैं और उन्होंने एकलव्य को भी इस बारे में बताया परंतु धनुर्विद्या सीखने की धुन और द्रोणाचार्य को अपनी कलाओं से प्रभावित करने की सोच लेकर उनके पास गया। परंतु ऐसा कुछ भी न हुआ और गुरु द्रोणाचार्य ने उसे अपमानित कर अपने आश्रम से निकाल दिया।

एकलव्य इस बात से तानिक भी आहत ना हुआ और उसने वहीँ जंगल में रह कर धनुर्विद्या प्राप्त करने के ठान ली। उसने जंगल में द्रोणाचार्य की एक मूर्ती बनायी और उन्हीं का ध्यान कर धनुर्विद्या में महारत हासिल कर ली।

एक दिन आचार्य द्रोण अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ आखेट के लिए उसी वन में पहुँच गए जहाँ एकलव्य रहते थे। उनका कुत्ता राह भटक कर एकलव्य के आश्रम पहुँच गया और भौंकने लगा। एकलव्य उस समय धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ते के भौंकने की आवाज से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी। अतः उसने ऐसे बाण चलाये की कुत्ते को जरा सी खरोंच भी नहीं आई और कुत्ते का मुँह भी बंद हो गया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी और अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया।

कुत्ता द्रोण के पास भागा। कुत्ता असहाय होकर गुरु द्रोण के पास जा पहुंचा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर को खोजते-खोजते एकलव्य के आश्रम पहुंचे और देखा की एकलव्य ऐसे बाण चला रहा है जो कोई चोटी का योद्धा भी नहीं चला सकता। ये बात द्रोणचार्य के लिये चिंता का विषय बन गयी। उन्होंने एकलव्य के सामने उसके गुरु के बारे में जानने की जिज्ञासा दिखाई तो एकलव्य ने उन्हें वो प्रतिमा दिखा दी।

उन्हें यह जानकर और भी आश्चर्य हुआ कि द्रोणाचार्य को मानस गुरु मानकर एकलव्य ने स्वयं ही अभ्यास से यह विद्या प्राप्त की है। अपनी प्रतिमा को देख आचार्य द्रोण ने कहा कि अगर तुम मुझे ही अपना गुरु मानते हो तो मुझे गुरु दक्षिणा दो। एकलव्य ने अपने प्राण तक देने की बात कर दी। गुरु दक्षिणा में गुरु द्रोण ने अंगूठे की मांग की जिससे कहीं एकलव्य सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर ना बन जाए अगर ऐसा हुआ तो अर्जुन को महान धनुर्धर बनाने का वचन झूठा हो जाएगा। एकलव्य ने बिना हिचकिचाहट अपना अंगूठा गुरु को अर्पित कर दिया। इसके बाद एकलव्य को छोड़ कर सब चले गए।

एक पुरानी कथा के अनुसार इसका एक सांकेतिक अर्थ यह भी हो सकता है कि एकलव्य को अतिमेधावी जानकर द्रोणाचार्य ने उसे बिना अँगूठे के धनुष चलाने की विशेष विद्या का दान दिया हो। कहते तो ये भी हैं कि अंगूठा कट जाने के बाद एकलव्य ने तर्जनी और मध्यमा अंगुली का प्रयोग कर तीर चलाने लगा। यहीं से तीरंदाजी करने के आधुनिक तरीके का जन्म हुआ। अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा। निःसन्देह यह बेहतर तरीका है और आजकल तीरंदाजी इसी तरह से होती है।

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